कल्पना गंगटा, शिमला
अरे ओ पुष्प ! खोज रहा अस्तित्व तू कहाँ ?
परेशान है क्यों जो मिला नहीं तुझे तेरा मुकाम
माना जिस डाली पर हुआ तेरा जन्म
बिछोह का उससे, तुझे है गम
अब-तक माली, करता रहा तुम्हारी रखवाली
आँधी-तूफान से बचाती रही तुझे हर डाली
अब वक्त तुम्हारा है आया,
उतार ले सारे कर्ज, पूरे कर ले तू अपने फर्ज
खुशबू जो पाई तूने
फिजा में बिखेरता चल
ले जाए हवा का झोंका उड़ाके अगर
तो धूल में भी इतना महक,
कुचलने का साहस न कर पाए कोई
उठाकर चूम ले तुझे हर कोई
बन जा तू इतना काबिल,
खिलता रहेगा जब-तक
होगी तेरी कदर, पर छोड़ दी तूने फितरत जो अपनी
देखेगा न कोई तुझे पलटकर,
रहना चाहता बगिया में अगर खड़ा
मुरझाने न देना तू अपना खिलता मुखड़ा ।