हमारे देश में माता-पिता और गुरु को देवताओं के समकक्ष रखा गया है| इनमें भी माता का दर्जा सबसे महान है क्योंकि हर माँ हर हाल में अपने बच्चों के उथान व रक्षा का दायित्व अपने कंधे पर लेती है| कुछ एक अपवादों को छोड़कर बच्चे भी अपनी माता के प्रति कभी कृतघ्न नहीं होते| इस कहानी का नायक सूरज भी अपनी मां के प्रति अपार श्रद्धा व सामान रखने वाले व्यक्तियों में से एक है| यद्यपि सूरज की पत्नी व बच्चे भी बुजुर्ग का उतना ही ध्यान रखते थे मगर फिर भी सूरज अपनी माता की छोटी से छोटी चीज का ध्यान रखता था| मधुमय तथा उच्च रक्त-चाप की मरीज़ होने के नाते सभी तरह के भोजन उसकी माता श्री के लिए उपयुक्त नहीं थे मगर फिर भी कुछ भी खाने से पूर्व वह अवश्य पूछता कि माँ ने खा लिया या नहीं और यदि कभी नकारात्मक उत्तर मिलता तो खाना उसके हलक से नीचे नहीं उतरता था|
कभी-कभी तो बच्चे कह देते कि दादी को पापा ने ही ज्यादा नाजुक बना दिया है| कई बार तो पत्नी भी बताती कि अस्सी वर्ष के बुजुर्ग के लिए क्या पाच्य है और क्या नहीं| सूरज की मां उन खुशकिस्मत इंसानो में से थी जिसकी एक आवाज पर तीन चार लोग दौड़े चले आते थे| सूरज रात होने से पहले यह पक्का कर लेता था कि माँ ने दवाई खा ली है…. पीने के लिए ताजा पानी उनकी मेज पर रख दिया गया है…. और सर्दियों में गर्म पानी की बोतल उनके बिस्तर पर रख दी गई है| यद्यपि ज्यादातर ये सारे कार्य उसकी धर्म-पत्नी व बच्चे ही करते थे, मगर फिर भी सूरज जब तक एक बार उसकी खोज खबर नहीं ले लेता, उसे चैन नहीं पड़ता|
सूरज की माताश्री अत्यंत धार्मिक थी उसका अधिकतर समय पूजा-पाठ में ही निकलता था| उनसे मिलने वाला प्रत्येक व्यक्ति उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था| कारण, वह अत्यंत मिलनसार थी| सूरज के पास इतना वक्त नहीं था कि वह घर में काम करने वाले लोगो से, जैसे माली, बर्तन धोने वाली या झाड़ू-पोछा करने वाली बाई की कोई खोज–खबर ले सके, मगर उसकी माँ के पास इन सब लोगों का संपूर्ण इतिहास होता था| वह अत्यंत सफाई पसंद थी| मसलन बाथरूम जाने से पहले साफ बाल्टियों को साफ करती थी, फिर बाथरूम का फर्श साफ करती थी, फिर नहाने के बाद अपने पहने हुए कपड़े भी स्वयं ही धोती थी| बाथरूम छोड़ने से पहले न केवल सारे फर्श को अच्छे से धोती थी अपितु उसे सुखाकर ही बाहर आती थी| नहाने व पूजा-पाठ के मामले में वह किसी से समझौता नहीं करती थी|
यूं तो वह अक्सर बीमार रहती थी मगर उनका नहाना और पूजा-पाठ सृष्टि नियमों की तरह अटल था| एक दिन उन्होंने सूरज को बुलाया और बताया कि आज उसकी तबीयत ठीक नहीं है| सूरज ने जैसे ही उनकी नब्ज देखी उन्हें तेज बुखार था| उनकी सांस तेज तेज चल रही थी| सूरज जल्दी से अपने कमरे में गया और एक बुखार की गोली ले कर अपनी माँ से बोला, “आप को बुखार है, डॉक्टर को फोन लगाता हूं, तब तक आप ये गोली खा लो|” माँ ने सूरज का हाथ पकड़ लिया और अत्यंत स्नेह पूर्वक बोली, “डॉक्टर को रहने दे गोली खा लेती हूं, पहले मेरी बात ध्यान से सुन, जिस काम के लिए मैंने तुम्हें बुलाया है|” उन्होंने सूरज को एक प्लास्टिक की डिबिया दी और बोली, “इसमें मेरे कंगन, हाथ की अंगूठी व कान की बालियां हैं|
इन्हें ध्यान से रख ले| मेरे बाद तुम्हारे काम आएंगे|” मां की यह बात सुनकर सूरज की आंखों में आंसू आ गए| उसने तुरंत डॉक्टर को फोन लगाना चाहा मगर माँ ने फिर आदेश दिया, “पहले फोन मेरी लाडो को लगा मुझे उससे भी कुछ बात करनी है|” सूरज ने किसी तरह अपने को संभालते हुए किसी अनहोनी की शंका में अपनी छोटी बहन के ससुराल में फोन लगाया| मां एकदम प्रखर स्वर में बोली, “और लाडो कैसी हो?… धीरज कैसा है?…बच्चे कैसे हैं? और बता तेरा टब्बर-टीर तो ठीक है?” माँ ने एक ही साँस में कई सवाल एक साथ पूछ लिए| वह थोड़ी देर के लिए रुकी और फिर पूरी ताकत के साथ उच्च स्वर में बोली, “अरी लाडो! यह बात जरा ध्यान से सुन, कुछ दिन पहले मैंने रज्जू की माँ को एक सूट सिलने को दिया था| अरी, वही सूट जो तेरी मामी ने दिया था, हल्के फिरोजी रंग का, याद आया कि नहीं?… रज्जू की माँ से कहना, गला ज्यादा डीप ना करें और हो सके तो गले के फ्रंट में चार-पांच मैचिंग बटन भी लगा दे| सूरज ने तुरंत अपने आँसू पोंछे और मुस्कुराते हुए माँ के गहने अलमारी में रखने चला गया|