हमारी संस्कृति में तीज त्योहारों का कोई अंत नहीं, आए दिन कोई न कोई तीज, त्योहार, पर्व व व्रत अक्सर चले ही रहते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि ये ऐसे ही मनाए जाते हैं और चले रहते हैं, इन सभी का भी हमारे जीवन से कोई न कोई संबंध रहता ही है। क्योंकि हमारा ब्रह्माण्ड बहुत बड़ा है और इधर तरह तरह के जीव जंतु, उस आलौकिक शक्ति के विचारते रहते हैं, जिनकी देख रेख उसी शक्ति द्वारा ही चलती है। ये सभी तीज त्योहार व इनका विधि विधान भी तो उसी का ही है। अर्थात इन सभी की भी समाज के प्रति अपनी विशेष भूमिका रहती है।
देवी काली एक ऐसी ही शक्ति हैं, जो कि समस्त ब्रह्मांड की विनाशकारी शक्तियों से डट कर सामना करती हैं। राक्षस व दुष्टों का नाश करती हैं। इसलिए काली का अर्थ कालिका, रात, विनाशक, भयानक, काल, समय व मृत्यु से भी लिया जाता है।
देवी काली के उत्पति के संबंध में कई एक पौराणिक कथाएं सुनने को मिलती हैं। लेकिन जितनी भी इनसे संबंधित कथाएं हैं, उन सभी में, देवी की उत्पति को विनाशक शक्तियों व राक्षसों का वध करने के लिए ही बताया गया है।
सतयुग की एक कथा के अनुसार, असुर दारुण ने देव ब्रह्मा की घोर तपस्या करके उनसे अपने से अतिरिक्त, किसी भी असुर या देवता से न मरने का वरदान प्राप्त किया था। इसी वरदान का अनुचित लाभ उठाते हुए वह सभी देवी देवताओं को तंग करने लगा था। उसके आतंक से तंग आकर सभी देवी देवता मिल कर, दारुण से छुटकारा पाने के लिए देवी माता पार्वती के पास पहुंच गए और उन्हें अपनी व्यथा कह सुनाई। जिस पर देवी पार्वती ने अपने शरीर के अंश को भगवान शिव के गले में उतार दिया, जो कि उनके गले के विष से मिल कर वहीं पनपना शुरू हो गया। भगवान शिव को जब इसका आभास हुआ तो, क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया जिसमें से धधकती ज्वाला के साथ एक भयानक देवी, काली के रूप में प्रकट हो गई, जिसको देख कर सभी देवी देवता और असुर भाग खड़े हुए और असुर दारुण का भी कहीं अता पता नहीं चला। प्रकट हुई देवी भी अपने क्रोध की अग्नि से इधर उधर दानवों की तलाश में भागे जा रही थी, जिससे भारी तनाव पैदा हो गया था। आखिर भगवान शिव उस स्थिति को नियंत्रित करने के लिए आगे आए और वह उसके (देवी के) आगे लेट गए। जब उस क्रोधित देवी काली के पांव शिव के शरीर पर पड़े तो उनके शरीर से (पांव का) स्पर्श होने पर देवी वहीं उसी समय शांत हो गई।
इसी तरह से एक अन्य कथा में दैत्य शुंभ व निशुंभ के अत्याचारों से पीड़ित देवी देवताओं को मुक्ति दिलाने के लिए देवी माता ने काली चंडिका का भयानक रूप धारण करके दोनों का वध कर दिया था। ऐसे ही एक अन्य रक्त बीज नाम का दैत्य भी था, जिसके खून की बूंद जहां गिरती थी, वहीं से उसकी नई उत्पति हो जाती थी। कहते हैं कि रक्त बीज ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी, जिस पर उसे शिव द्वारा यही वरदान मिला था कि उसे कोई नहीं खत्म कर पाएगा, जहां भी उसके रक्त की बूंद पड़ेगी वहीं से नया दैत्य पैदा हो जाएगा। भगवान शिव के इसी वरदान के कारण ही उसको मारने की बड़ी समस्या बनी हुए थी। जिसके लिए देवी पार्वती ने महाकाली का प्रचंड रूप धारण कर लम्बी जिह्वा के साथ खप्पर लेकर, रक्तबीज का वध करते हुए उसके रक्त को भी अपनी लम्बी जिह्वा से पीती गई और रक्त की एक बूंद को भी नीचे गिरने नहीं दिया। उस अत्याचारी दैत्य को भी इसी प्रकार से वध करके मार दिया था।
ऐसी ही एक अन्य कथा से दैत्य मधु व कैटभ द्वारा देव ब्रह्मा को ही मारने की जानकारी मिलती है। कथा के अनुसार भगवान विष्णु जब क्षीर सागर में योग निद्रा में थे तो उनके कान से निकली मैल से दो दैत्य मधु व कैटभ प्रकट हो गए और वे दोनों देव ब्रह्मा को मारने को आगे बढ़ने लगे। जिस पर देव ब्रह्मा अपने बचाव के लिए (देवी माता काली से, भगवान विष्णु को जगाने व दैत्यों से बचाने की) आराधना करने लगे और तभी विष्णु जी भी उठ बैठे। देवी माता के मोहजाल व भगवान विष्णु के उठ जाने से दोनों दैत्यों ने आत्म समर्पण कर दिया और भगवान विष्णु ने उसी समय अपने सुदर्शन चक्र से उनका काम तमाम कर दिया।
देवी माता काली का पूजन कार्तिक मास की अमावस्या के दिन अर्थात दिवाली को ही मध्य रात्रि में किया जाता है। इस त्योहार को अधिकतर पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा, असम, त्रिपुरा व झारखंड में बड़े ही धूम धाम के साथ मनाया जाता है। देवी काली के पूजन से बुरी शक्तियों का नाश होता है, सुख शांति की प्राप्ति होती है, शत्रुओं का नाश होता है और समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
देवी काली के पूजन के लिए सबसे पहले ब्रह्ममुहुर्त में स्नान आदि से निवृत होना चाहिए। पूजा पाठ का स्थल अच्छी तरह से साफ सुथरा होना चाहिए। पूजा के लिए लकड़ी के पटड़े को गंगाजल से शुद्ध करके उस पर लाल या काले रंग के कपड़े को बिछा लेना चाहिए और इसी पर देवी माता काली की प्रतिमा या तस्वीर स्थापित करके, जल, दूध, फल, सिंदूर, हल्दी, कुमकुम, काजल, लौंग, सुपारी व कपूर आदि देवी को अर्पित करने चाहिए। फिर फूल माला चढ़ा कर सरसों का दीप जला कर धूप आरती करें।
देवी को गुड की मिठाई, लाल गुड़हल के फूल, चावल, दाल व खिचड़ी आदि चढ़ाए जाते हैं।