देवी महा काली का सभी देवियों में अपना विशेष ही स्थान है। इसी की सौम्य व रौद्र रूप से ही तो दस महाविद्याओं निकली हैं,जिन से कि सारी सृष्टि के क्रिया कलाप चलते हैं। इसी देवी की साधना से विद्वान ,साधु संत ,आघौरी तान्त्रिक आदि सिद्धियां प्राप्त करते हैं। हमारे जीवन में इन दस महाविद्याओं का क्या महत्व है ,की चर्चा इस आलेख में करने का प्रयास करने जा रहा हूं। प्रथम देवी महाकाली: देवी महा काली की उपासना दो रूपों में की जाती है। जिनमें भवबंदनलोचन नामक उपासना अपना विशेष स्थान रखती है,लेकिन भक्ति मार्ग महामाया की उपासना किसी भी रूप में की जाए वह फलदाई ही होती है। सिद्धि प्राप्ति के लिए देवी की उपासना वीर भाव से ही की जाती है।देवी काली की आराधना का फल श्रद्धा,मंत्र,जाप,पूजा,होम तथा पुराशचार्ण से प्राप्त होता है।
द्वितीय महाविद्या देवी तारा:
देवी काली के नीले रूप को तारा कहा जाता है और इसे मोक्ष दात्री या मोक्ष की देवी भी कहा जाता है।यह देवी क्योंकि वाक शक्ति प्रदान करती है ,इस लिए इसे नील सरस्वती भी कहते हैं।जब यह देवी उग्र रूप में होती है तो उस समय इसे भक्तों के रक्षक के रूप में देखा जाता है। इनके चारों हाथों में क्रमश: कैंची,कपाल, खड्ग व मुंड तथा गले में भी मुंड माला पड़ी रहती है। देवी तारा की उपासना शत्रु पर विजय पाने,वाक शक्ति व मोक्ष प्राप्ति के लिए की जाती है।उपासना तंत्र पद्धति द्वारा ही की जाती है और इस आगमोक्त पद्धति भी कहा जाता है।देवी के तीन रूपों में तारा,एक जटा और देवी नील सरस्वती आ जाती है। देवी भगवान शिव की समस्त लीला विलास की सहचरी व समस्त प्राणियों के नाना प्रकार के पोषण भी करती है।तारा देवी का रूप सौम्य व कांति अरुण जैसी होती है।
तृतीय महाविद्य : छिन्नमस्ता(चिंतपूर्णी):
संसार की सभी तरह के होने वाले परिवर्तन व गतिविधियां ,देवी मांछिन्नमास्ता की शक्ति से ही चलते हैं। वैसे इस देवी का स्वरूप गोपनीय ही बताया जाता है। देवी को छिन्न मस्ता क्यों कहा जाता है के बारे में बताया जाता है कि एक बार देवी अपनी दो सहेलियों (जाया व विजया)के साथ मंदाकनी नदी में स्नान को गाई थी ।स्नान के पश्चात जब सहेलियों को भूख लगी तो ,उन्होंने देवी से कुछ खाने को देने को कहा।देवी ने उन्हें थोड़ा इंतजार करने को कहा।कुछ देर के पश्चात सहेलियों से नहीं रहा गया तो उन्होंने देवी से कहा कि मां तो अपने बच्चों की भूख मिटाने के लिए कुछ न कुछ तो प्रबंध कर ही देती है,आप है कि कुछ ध्यान ही नहीं दे रही हैं,,,, सहेलियों की बात सुनते ही देवी मां ने अपना सिर काट कर हाथ में ले लिया ,कटी गर्दन से निकलती खून की तीन धाराओं में से दो धाराएं दोनों सहेलियों के मुंह की ओर कर दीं व तीसरी से खुद पान करने लगी।इस तरह तभी से देवी मां को छिन्नमस्ता के नाम से जाना जाने लगा।देवी छिन्नमस्ता की सिद्धि के लिए( इसकी )उपासना रात को की जाती है।
देवी की अराधना से राज्य प्राप्ति,लड़ाई में विजय व मोक्ष की प्राप्ति भी की जा सकती है। ऐसा भी बताया जाता है कि मणि पुर चक्र की नीचे की नाड़ियों में जो काम व रति का मूल रहता है , उस पर भी मां छिन्नमस्ता की शक्ति आरूढ़ रहती है।इसी लिए तो देवी छिन्नमस्ता वज्र वैरोचनी के नाम से बौद्धों व जैनों में एक ही प्रकार से मानी जाती है। देवी की दोनो सहेलियां जाया व विजया रजो व तमों गुण की प्रतीक मानी जाती हैं।
चतुर्थ महाविद्या :षोडशी (राजेश्वरी):
देवी राजराजेश्वरी का मंत्र 16 अक्षरों का होता है और इसकी चार भुजाएं व तीन नेत्र होते हैं।इसके आयुधों में पाश,अंकुश,धनुष व बाण आ जाते हैं। देवी राज राजेश्वरी को भगवान शिव की नाभी से निकलने वाले कमल फूल पर आसान मुद्रा में बैठे देखा जा सकता है।इसी लिए इस देवी को हिरण्यगर्भ(शिव) की शक्ति के रूप में भी जाना जाता है।तंत्र शास्त्र के अनुसार देवी को पंचवख्त्र भी कहा गया है।
इसके पांच में से चार मुख चारों दिशाओं की ओर तथा पांच मुख ऊपर की ओर होता है। इसके यह मुख तत्पुर्ष, सद्योजात,वामदेव,अघोर तथा ईशान भगवान शिव के ही प्रतीक हैं,इन मुखों का रंग क्रमश: हरा,लाल , धूम्र ,नीला तथा पीला होता है।देवी का सोलह कलाओं में परिपूर्ण होने के कारण ही इन्हें षोडशी कहा जाता है। षोडशी के अतिरिक्त महात्रिपुरासुन्दरी व बालापंचदाशी के नाम से भी जानी जाती है। देवी के चार रूपों में स्थूल , सूक्ष्म,पर व तुरीथ रूप भी आ जाते हैं।
पंचम महाविद्या:भुवनेश्वरी:
देवी भुनेश्वरी रूप सौम्य व चमक सूर्य की कांति जैसी बताई गई है।इस देवी की अराधना से सभी तरह की सिद्धियों व कामनाओं की पूर्ति होती है।देवी के दो हाथों के आयुधों में अंकुश व पाश प्रमुख हैं,इसके साथ ही साथ दूसरे दोनों हाथों को वरद वअभय मुद्रा में देखा जा सकता है। देवी भुवनेश्वरी समस्त प्रकृति को अपने आयुधों से ही नियंत्रित करती है तथा दूसरी सभी महाविद्याएं हमेशा इसकी सहायता को तैयार रहती हैं। पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए भी इसकी अराधना की जाती है और इन्हें मां दुर्गा के नाम से भी जाना जाता है।
षष्ठम महाविद्या:त्रिपुर भैरवी:
त्रिपुर भैरवी काल भैरव की शक्ति मानी जाती है।इसी देवी की कृपा से इंद्रियों के साथ ही साथ अन्य क्षेत्रों पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है।लिबास में इनके वस्त्र लाल रंग के बताए जाते हैं और गले में मुण्डों की माला धारण रहती है।देवी के चारों हाथों में से दो में क्रमानुसार जयमाला ,पुस्तक तथा शेष दोनों हाथ वरद व अभय मुद्रा में होते हैं। देवी की बैठी मुद्रा कमलासन में होती है।इस महाविद्या ,देवी त्रिपुर भैरवी की अराधना से सभी प्रकार के दुख व विकार दूर हो जाते हैं। इस देवी के भी कई भेद हैं ,जैसे कि सिद्ध भैरवी,चैतन्य भैरवी,भुवनेश्वरी भैरवी,कपलेश्वर भैरवी,कामेश्वर भैरवी ,षटकुटा भैरवी व रूद्र भैरवी आदि।
सप्तम महाविद्या:धूमावती:
देवी धूमावती के संबंध में शास्त्रों के अनुसार बताया गया है कि जब देवी भगवान शिव के साथ कैलाश में बैठे विश्राम कर रही थी तो इन्हें भूख का अहसास हुआ तो देवी ने भगवान शिव से कुछ खिलाने को कहा,लेकिन भगवान शिव ने देवी की ओर ध्यान नहीं दिया।देवी क्रोधित हो गई और उसी क्रोध में भगवान शिव को ही निगल गई।भगवान शिव को निगलने के पश्चात उसके शरीर से धुआं निकलने लगा तो,उस पर भगवान शिव ने उसका नाम धुआं वती रख दिया।जब देवी का कोई स्वामी नहीं रहा तो इसे विधवा देवी के नाम से जाना जाने लगा।इस महाविद्या धूमावती की अराधना से सभी दुखों का निवारण,रोगों से मुक्ति तथा लड़ाई झगड़े में जीत प्राप्त होती है
अष्टम महाविद्या :देवी बगला मुखी:
देवी बगला मुखी का लिबास वस्त्र ,आभूषण,प्रसाद व इनको चढ़ाए जाने वाले फूल फ एमकेल आदि सब कुछ पीले रंग के ही होते हैं।इस देवी की उत्पति के बारे में बताया गया है कि सतयुग में जिस समय पृथ्वी पर भारी विनाश हुआ था तो उस समय भगवान विष्णु ने ,कठोर तप करके देवी को सहायता के लिए बुलाया था और तभी देवी ने हरिद्रा सरोवर से प्रकट होकर सबको दर्शन दे कर उस विनाश से बचाया था।तभी से देवी बगला मुखी की अराधना प्रकोपों से मुक्ति पाने के लिए की जाने लगी।इसके साथ ही साथ धन संपदा व शांति के लिए भी लोग देवी की अराधना करते है।देवी को चित्रों व मूर्तियों में शत्रु की जिह्वा को पकड़े देखा जा सकता है,इसी लिए देवी को ब्रह्मास्त्र के नाम से भी पुकारा जाता है।देवी के मंत्रों में इसके पांच भेद बताए गए हैं, अर्थात् बगला मुखी, वेद मुखी, उल्का मुखी,ज्वालामुखी व बृहदमानुमुखी ।
नवम महाविद्या: मातङ्गी (शीतला माता):
वैसे मातंग भगवान शिव की शक्ति का ही नाम है।देवी मातङ्गी की पहचान इसके तीन नेत्रों,सुंदर रत्नमय सिंहासन व नील कमल जैसी चमक से की जाती है।देवी के चारों हाथों में क्रमश:पाश ,अंकुश,खेटक व खड़ग को देखा जा सकता है। शास्त्रों में देवी के प्रकट होने के बारे में लिखा है कि मातंग नमक ऋषि ने जब कदम्ब में जीवों को अपने अधीन करने के लिए देवी त्रिपुरा की अराधना करके प्रसन्न किया तो उस समय देवी के नेत्रों से ऐसा विचित्र प्रकाश निकला कि वहीं एक देवी रूपी स्त्री प्रकट हो गई,जो कि राजमातंगी के नाम से भी जानी जाने लगी ।इसके साथ ही साथ इसे सुमुखी, वशय मातङ्गी तथा कर्ण मातङ्गी के नाम से भी जाना जाने लगी। इस देवी की उपासना वाक सिद्धि के लिए विशेष रूप से की जाती है। इसके शरीर का वर्ण श्याम तथा गले में कल्हर फूलों की माला रहती है।देवी के नेत्रों को सूर्य, सोम तथा अग्नि का प्रतीक माना जाता है और इनकी चारों भुजाएं वेद की प्रतीक होती हैं।तभी तो मातङ्गी देवी तांत्रिकों के लिए महाविद्या का रूप व वैदिकों को के लिए सरस्वती का रूप है।
दशम महाविद्या:देवी कमला(मां लक्ष्मी):
महाविद्याओं में लक्ष्मी दसवें स्थान पर आती है। क्योंकि भगवान विष्णु देवी लक्ष्मी के पति हैं ,इस लिए इन्हें विष्णु की शक्ति वैष्णवी भी कहा जाता है।इतना ही नहीं, इन्हें तो धन की देवी भी कहा जाता है। देवी लक्ष्मी पर सभी जीवधारी,देवी देवता व दानव आदि निर्भर रहते हैं।इस महाविद्या की शारीरिक चमक सोने जैसी बताई गई है।देवी के चारों में से दो हाथों में कमल फूल तथा शेष दो हाथ वरद व अभय मुद्रा में होते हैं। इनकी बैठी मुद्रा कमलासन की होती है।इस महाविद्या की उपासना समृद्धि व संतान प्राप्ति के लिए की जाती है।इस देवी की पूजा भार्गवों द्वारा की जाने के कारण ही इन्हें भार्गवी भी कहा जाता है।
जब की ब्रह्मा विष्णु तथा महेश द्वारा इनकी आराधना किए जाने के कारण इन्हें त्रिपुरा भी कहा जाता है।इसी प्रकार ब्रह्मा ,विष्णु व महेश के योग शिव को त्रिपुर तथा उनकी शक्ति को त्रिपुरा कहा जाता है ।इस देवी लक्ष्मी की अराधना से सभी प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं। जहां दस महाविद्याओं से तरह तरह की सिद्धियां प्राप्त होती हैं,दुखों का निवारण व कामनाओं की पूर्ति होती है ,वहीं समस्त ब्रह्माण्ड की गतिविधियां पर भी इन्हीं विद्याओं का नियंत्रण रहता है। इन सभी महाविद्याओं के महत्व को ध्यान में रखते हुवे हमारे प्रदेश हिमाचल में मंडी ही एक ऐसा जिले का स्थान है जहां की इन दसों विद्याओं के मंदिर देखने को मिल जाते हैं,जो की मण्डी के लिए ही नहीं बल्कि प्रदेश के लिए गर्व की बात है। आप सब को नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएं व बधाई ।
Children’s Theatre Festival In Shimla : Honoring The Fusion of Literature and Performance