वर्तमान भारत में एक अप्रैल से नया वित्तीय वर्ष प्रारंभ होता है और इसका समापन इक्तिस मार्च को होता है। विभिन्न देशों में विभिन्न मासों से वित्तीय वर्ष प्रारंभ या समाप्त होते हैं। भारत में वैदिक काल से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा पर नव संवत्सर (नव वर्ष) बनाया जाता है। सनातन संस्कृति में यह दिन अत्यंत शुभ माना जाता है।भारत में कृषि का चक्र भी इन्हीं दिनों में बदलता है। तो सम्भव है की तभी भारत में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के आस पास वित्तीय वर्ष आरम्भ किये जाने की परम्परा शुरू हुई हो। आज के डिजीटल युग में जहां सारा काम कम्प्यूटर के माध्यम से होता हैं।
व्यापारी भी अपना सारा लेखा-जोखा विभिन्न साफ्टवेयर के उपयोग से सुरक्षित करते हैं। लेखा-जोखा रखने वाले लेखापाल कहलातें हैं। ऐसा भी समय रहा है जब लगभग प्रत्येक व्यापारी अपना सारा लेखा-जोखा लाल रंग के कपड़े और उसपर पिले रंग के धागे से की गई कड़ाई वाली मोटी जिल्द और अन्दर सफेद पृष्ठों पर स्याही और लेखनी से लिखते थे। आज तो विभिन्न प्रकार की लेखनीयां बाजार में उपलब्ध है जिन में पहले से स्याही भरी होती है। अलग-अलग आकार प्रकार के बही खातों में पृष्ठों का आकार मोटाई और पृष्ठों की संख्या अलग रहती है। इन बहियों का मुल्य वजन के हिसाब से होता है। मण्डी के ऐतिहासिक चौहटा बाजार में रोहित वैद्य जी आज भी अपने पुर्वजों के बही-खातों के क्रय-विक्रय करने के कार्य को आगे बड़ा रहें हैं।
वहीं अरोड़ा करयान स्टोर के स्वामी स्वर्गीय सुदर्शन अरोड़ा नए वित्तीय वर्ष शुरू होने से पहले लाल रंग के नये बहि खाते क्रय कर लेते थे। इन बहियों के अन्दर के प्रथम पृष्ठ पर श्री गणपति और माँ लक्ष्मी का चित्र आज कल पहले से छपा हुआ आता है। किंतु पहले के समय में हाथ से ही चित्र बनाऐ जाते थे। इन्हीं पृष्ठों पर वर्ष भर का लेखा-जोखा व्यापारी या लेखापाल लिखते हैं। नए बहि खाते की सर्व प्रथम पुजा की जाती और प्रथम पृष्ठ पर गणपति जी और लक्ष्मी जी से सम्बंधित मंत्र लिखे जाते उसके उपरांत ही लेखा-जोख लिखा जाता। हमारी सनातन संस्कृति में ‘शुभ लाभ’ का तात्पर्य सत्यनिष्ठा से ही अर्जित लाभ से है। प्राचीन काल से ही भारत के व्यापारी विश्वभर में अपनी सत्यनिष्ठा से ही पहचाने जाते रहें हैं। पहले के बहि-खातों के पृष्ठों का रंग हल्का भूरा या हल्का पीला होता था। भारत में हस्तनिर्मित कागज हजार वर्ष से भी पूर्व बनाया जाता था।
सियालकोट जो अब वर्तमान पाकिस्तान मे है। यहां का कागज बहुत प्रसिद्ध था। आज भी बुजुर्ग सियालकोटी कागज और बहियों का गुणगान करते नहीं थकते। यह बहियां सौ वर्ष तो आराम से निकाल लेती हैं। लाल रंग हमारी संस्कृति में शक्ति का प्रतीक है और शुभ माना जाता है। पिला रंग बृहस्पति से जुड़ा है और शुभ है। हिंदू भगवानों के हाथों में, पाण्डुलिपियां,पोथियां, बहि- खाते के आकार की पुस्तकें प्राचीन मूर्तियों और चित्रों में देखी जा सकती है। लेखन परम्परा भी भारत में वैदिक काल से रही है। हाथ से उकेरे शब्द लम्बें समय तक हमारी स्मृति में रहते हैं। वर्तमान में बही-खाता लिखने का चलन समय के साथ कम हो रहा है।