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सनातन चिंतन को बचाए रखने के लिए चार धामों का गठन आदि गुरु शंकराचार्य ने किया था
अपनी प्राचीन संस्कृति व धर्म की जब जब बात चलती है तो इसके साथ ही हमें अपने उन समस्त महा पुरुषों के अवतरण के साथ ही साथ महान विभूतियों, सिद्धपुरषों, साधु संतों, धर्म प्रचारकों, धर्मरक्षकों, देश के क्रांतिकारी वीरों आदि के बलिदानों की भी याद सताने लगती है। क्योंकि आज उन्हीं कि बदौलत ही तो हम अपनी प्राचीन सांस्कृतिक रूपी धरोहर व धर्म को बचाए हुए हैं और आज हमारा देश पूरी दुनियां में अपनी इसी विचारधारा (सनातन चिंतन) के लिए आकर्षण का केंद्र बिंदु बना हुआ है।
देश के प्रसिद्ध धर्म रक्षकों, सुधारकों या प्रचारकों की गिनती की जाए तो एक लम्बी श्रृंखला बनती नजर आती है। इस श्रृंखला के कुछ प्रमुख नाम इस प्रकार से गिनाए जा सकते हैं, जोकि महात्मा बुद्ध से लेकर गुरुनानक देव, संत तुलसीदास, संत कबीर, संत रहीम, संत माधव, संत रामानुज व गुरु गोविंद सिंह जैसी असंख्य धर्म रक्षक व धर्म सुधारक विभूतियां के हैं। इन्हीं महान विभूतियों के साथ ही साथ एक अन्य नाम जिनकी 12 मई को जयंती भी मनाई जा रही है, वो हैं आदि गुरु शंकराचार्य।
आदि गुरु शंकराचार्य का नाम हिंदू धर्म के प्रचार प्रसार के लिए सबसे ऊपर रखा जा सकता है। इन्होंने ही हिंदू धर्म को एक सूत्र में बांध रखने हेतु, देश की चारों दिशाओं में एक एक मठ की स्थापना करके चार धामों का गठन किया था। देश के उत्तर अर्थात कश्मीर में ज्योतिर्मठ बद्रीनाथ, दक्षिण में वेदांत ज्ञान मठ या श्रृंगेरी पीठ, पूर्व में गोवर्धन मठ जगन्नाथ धाम व पश्चिम में शारदा मठ द्वारिका धाम है।
आदि गुरु शंकराचार्य का जन्म दक्षिण भारत के केरल राज्य के एक गांव कलादी में ब्रह्मण माता अर्याम्ब व पिता शिवागुरु के घर ई. 788 में वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को हुआ था। कहते हैं कि शंकराचार्य के पिता शिवागुरू भगवान शिव के अनन्य भक्त थे और भगवान शिव की ही कृपा दृष्टि व उनकी आराधना पूजा पाठ के पश्चात ही बालक शंकराचार्य का जन्म हुआ था। इसी कारण से ही इन्हें भगवान शिव का अवतार भी बताया जाता है। इनके जन्म के शीघ्र बाद ही पिता शिवागुरु का देहांत हो गया था। कहते हैं कि जब शंकराचार्य मात्र 2 बरस के ही थे तो (इन्हें अपनी माता से प्राप्त धर्म शिक्षा के कारण ही) धर्मशास्त्रों में वेद, उपनिषद, रामायण व महाभारत जुबानी याद हो गए थे। फिर सांसारिक गतिविधियों में रुचि न रहने से जल्दी ही इन्होंने सन्यास ग्रहण कर लिया और गुरु की खोज में निकल गए और गुरु शंकर गोविंदा के पास पहुंच कर मात्र 16 वर्ष की आयु में इन्होंने आत्म बोध, विवेक चूड़ामणि, उपदेश सह्स्त्री, वाक्य वृति, सौंदर्य लहरी और ब्रह्मसूत्र भाष्य सहित 100 से अधिक पुस्तकों की रचना के साथ ही साथ कई भजनों की भी रचना की थी।
जगत गुरु शंकराचार्य नाम के पीछे बताया जाता है कि इनके अनेकों अपने शिष्य थे, जिस कारण ही इन्हें जगत गुरु के नाम से भी जाना जाता था। जगत गुरु,आदि गुरु व स्वामी जी के साथ ही साथ शंकराचार्य जी एक महान व उच्च कोटि के दार्शनिक संत थे। इन्होंने अद्वैत वेदांत दर्शन का विस्तार से वर्णन के साथ ही साथ हिंदू धर्म के अन्य ग्रंथों जिनमें भागवत गीता, ब्रह्मसूत्रों, उपनिषदो की भी व्याख्या आ जाती है। अपनी माता अर्याम्ब के मार्गदर्शन के फलस्वरूप ही शंकराचार्य उनका बड़ा मान सम्मान करते थे और अपने द्वारा दिए वचन के अनुसार ही, जब मां ने अपने प्राण त्यागे थे तो संन्यासी रहते हुए भी इन्होंने अपनी माता का संपूर्ण दाह संस्कार खुद ही बिना किसी के सहयोग से अपने ही घर के आगे किया था, क्योंकि लोग इसके लिए राजी नहीं थे। बाद में इनके गांव कोलडी में घर के सामने ही चिता जलाने की परंपरा ही बन गई।
इस तरह आदि गुरु शंकराचार्य जिन्हें कि भगवान शिव का अवतार भी बताया जाता है, ने अपना सब कुछ हिंदू धर्म के संरक्षण में अर्पित कर दिया। देश विदेश तक घूम घूम कर इसका प्रचार करते हुए, उत्तर में कश्मीर, दक्षिण में श्रृंगेरी केरल, पूर्व में जगन्नाथ व पश्चिम में द्वारिका धाम जैसे मठों का निर्माण करवा कर, वहां पर पूजा पाठ, सत्संग जैसे धार्मिक आयोजानों का सिलसिला शुरू करवा कर हिंदू धर्म को विशेष पहचान दिलाई थी। 12 मई को उनकी जयंती के पावन अवसर पर, आदि गुरु शंकराचार्य जी को शत शत नमन हैं।