बदनाम पानी – डॉ. कमल के. प्यासा

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डॉ. कमल के. प्यासा – मण्डी

हां,
मैं ही हूं
बदनाम बदनसीब,
सबकी प्यास मिटाता
बरसता बहता ,
बेचारा पानी !

मेरा खुद का
वाजूद नहीं,
रंग, रूप, गंध आकर नहीं
मर्म, मैल, खोट नहीं,
जैसा जहां समाता
आकार अपना बिसर जाता !
धो धो मिटाता पापों को
बदनाम बदनसीब
मैं बेचारा पानी !

बरसता बहता
रुकता कैसे,
रुकना ही तो आता नहीं,
फितरत ही है ऐसी पाई !
अवरोधों को सहता नहीं,
ढलानों की ओर बहता
इस पर क्या कसूर मेरा
ऊपर से नीचे आता !

अरे सोचो
थोड़ा जानों पहचानो
स्थितिनुसार ही ढलता
उसी अनुसार ही चलता
हिमखंड से हो रूपांतरित
उड़ता वाष्प बनता
बादल बन गरजता
बूंदों में बरसता
कहीं फटता मचती तबाही
त्राहि त्राहि चाहूं ओर

हां,
मैं ही हूं
बदनाम बदनसीब
सबकी प्यास मिटाता,
बरसता बहता
बेचारा पानी !

अरे,
उठो जागो
चली विकास की आंधी
संभलो और संभालो,
कटे पेड़ ऊंचे पहाड़ ढले
खत्म हुए जंगल जीव,
उजड़े रैन बसेरे कितने ?
मैदान, सुरंगें, डैम सड़के बनी,
उठा उफान नदी नालों में
रौद्र की उठी लहरें,
बह ले गईं न जाने किन 2को ?

हां,
मैं ही हूं
बदनाम बदनसीब
सबकी प्यास मिटाता
बरसता बहता,
बेचारा पानी !

******

स्वतंत्रता दिवस और शहीद उधम सिंह – डॉ. कमल के. प्यासा

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