डॉ कमल के प्यासा

बसंत ऋतु में मनाए जाने वाले त्यौहारों में बसंत पंचमी के अतिरिक्त जो दूसरा प्रमुख त्यौहार आता है, वह होली है। इसे रंगों के त्यौहार के नाम से भी जाना जाता है। होली का पर्व फागुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है, और इस दिन रंगों का विशेष महत्व रहता है। इस रंगों के त्यौहार में दो प्रकार के रंगों का प्रचलन होता है: सिंथेटिक और प्राकृतिक रंग।
सिंथेटिक रंग और उनके दुष्प्रभाव
सिंथेटिक रंग, जो कि हमारी त्वचा और आंखों के लिए हानिकारक होते हैं, रासायनिक पदार्थों (जैसे पेट्रोलियम) से तैयार किए जाते हैं। यह रंग शरीर के लिए नुकसानदायक हो सकते हैं।
प्राकृतिक रंग और उनका महत्व
वहीं, प्राकृतिक रंग खाद्य पदार्थों, पेड़-पौधों, फूलों, पत्तों, बीजों और खनिजों से तैयार किए जाते हैं और इन्हें आमतौर पर बिना किसी रोक-टोक के खाद्य पदार्थों में भी इस्तेमाल किया जाता है। प्राकृतिक रंगों में गुलाल, अबीर, और वनस्पति फूलों के रंग प्रमुख होते हैं।
हानिकारक पदार्थों से बचें
कुछ स्थानों पर लोग पेंट, मोबाइल ऑयल, गोबर, कालिख, राख जैसे हानिकारक पदार्थों का भी प्रयोग करते हैं, जो शरीर के लिए अत्यधिक हानिकारक होते हैं। हमें इन पदार्थों से बचना चाहिए और केवल प्राकृतिक रंगों का उपयोग करना चाहिए।
होली का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व
होली का त्यौहार हिन्दुओं के लिए प्रमुख है, लेकिन इसे अन्य समुदायों द्वारा भी पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस प्रकार होली में राष्ट्रीय एकता और भाईचारे की भावना देखने को मिलती है।
पौराणिक कथा
होली के त्यौहार के पीछे एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा है। यह कथा भगवान विष्णु के भक्त प्रहलाद और उनके दुष्ट पिता हिरण्य कश्यप से जुड़ी है। प्रहलाद विष्णु के परम भक्त थे, जबकि उनका पिता खुद को भगवान मानता था। हिरण्य कश्यप ने अपनी बहन होलिका की मदद से प्रहलाद को जलाने की योजना बनाई, क्योंकि होलिका को आग से न जलने का वरदान प्राप्त था। लेकिन भगवान विष्णु ने प्रहलाद की रक्षा की और होलिका को अग्नि में जलने दिया। इस दिन से होलिका दहन और रंगों से होली खेलने की परंपरा शुरू हुई, जो बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक बन गई।
होलिका दहन और रंगों का उत्सव
होली में लोग मिलजुल कर आपस में रंग लगाते हैं, गले मिलते हैं और गिले शिकवे दूर करते हैं। समस्त भारत और भारतीयों के बसे स्थानों पर होली का रंग जमता है। मथुरा-वृंदावन की होली विशेष रूप से प्रसिद्ध है, जो बसंत पंचमी से शुरू होकर 40 दिन तक चलती है।
विशेष होली की परंपराएं
- लठ मार होली: राजस्थान के भरतपुर और करौली में लठ मार होली का चलन है, जिसमें लोग एक-दूसरे को लठ से मारते हुए होली खेलते हैं।
- आनंदपुर साहिब की होली: पंजाब में आनंदपुर साहिब में सिखों के लिए विशेष होली होती है, जिसमें हजारों लोग भाग लेते हैं।
- सुजानपुर की होली: हिमाचल प्रदेश में सुजानपुर की होली रियासत काल से प्रसिद्ध है और यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक मेले के रूप में मनाई जाती है।
- किन्नौर की होली: किन्नौर की होली 3 दिन तक चलती है और यह पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बन गई है।
- कुल्लू की होली: कुल्लू में होली बसंत पंचमी से शुरू होती है। बैरागी समुदाय के लोग भगवान रघुनाथ मंदिर में पूजा करते हैं और रथ यात्रा निकालते हैं।
मंडी की होली
मंडी में होली एक दिन पहले खेली जाती है और पिछले कुछ सालों में यहां गुलाल, अबीर और वनस्पति रंगों का उपयोग बढ़ा है। यहां होली पर देव माधव राव की पूजा और डीजे संगीत के साथ लोग रंगों में रंगते हैं।
ऊना का मैड़ी होली मेला
ऊना के मैड़ी के डेरा बड़भाग सिंह में होली 10 दिन तक एक मेले के रूप में मनाई जाती है। यहां बाबा बड़भाग सिंह जी की पवित्र आत्मा का आगमन माना जाता है, और लोग ओपरे और भूत-प्रेत के उपचार के लिए यहां आते हैं।
भिन्न-भिन्न स्थानों पर होली मनाने के विभिन्न रूप और तरीके होते हैं, लेकिन एक बात जो हर स्थान पर समान है, वह है एकता, भाईचारा, प्रेम और द्वेष-वैमनस्य को भुलाकर एक ही रंग में रंग जाना। यही है हमारी संस्कृति और होली का असली संदेश