दास्तानगोई किस्सा कहानी कहने की एक कला है। यह कला आज से लगभग एक हजार साल पहले अरबी नायक अमीर हम्जा के शौर्य और साहसिक कार्यों के इर्द-गिर्द बुनी कहानियों के रूप में विकसित हुई और देखते ही देखते यह परम्परा बोस्निया, मोरोक्को, अल्जीरिया से होती हुई चीन तक फैल गई। परन्तु ये कहानियाँ सबसे अधिक लोकप्रिय तब हुई जब ये उर्दू भाषा का हिस्सा बनीं।
यह कला 19वी शताब्दी में उत्तर भारत में अपने चरम पर पहुँची। परन्तु सन् 1928 में आखिरी बड़े किस्सा गो मीर बकार अली की मृत्यु के साथ ही इस विधा का भी अवसान हो गया। आधुनिक काल में किस्सागोई की कला का पुनर्जागरण उर्दू के दो विद्वानों, एस. आर. फारूकी और महमूद फारूकी के प्रयास से हुआ। उन्होंने कहानी-कला की इस विधा का आधुनिक रूप विकसित किया। आधुनिक समय में दास्तानगोई का पहला प्रदर्शन मई 2005 में किया गया । उसके बाद से महमूद फारुकी और उनके साथियों ने विश्वभर में 1500 से अधिक बार दास्तानगोई के प्रदर्शन किये हैं। वर्ष 2009 के बाद उन्होंने अपने दल को और बढ़ाया है और आज उनके दल में 16 सदस्य है जो विश्वभर में दास्तानगोई का मंचन करते हैं। दास्तान-ए-चौबोली यह दास्तान विजयदान देथा द्वारा लिखी एक मूल राजस्थानी लोककथा का दास्तानगोई में सपान्तरण है। मिशीगन यूनिवर्सिटी की शोधकर्ता क्रिस्टी मायरिल ने इस दास्तान का राजस्थानी से अंबोजी में अनुवाद किया, जिसका उर्दू अनुवाद सन् 2013 में हुआ।
उर्दू कथा को एक दास्तान के रूप में महमूद फारूकी ने परिवर्तित किया है। राजकुमारी चौबोली ने प्रण लिया है कि वह केवल उस व्यक्ति से विवाह करेगी जो उसे एक रात के अन्तराल में चार बार बोलने को विवश कर देगा। सत्रह बार चौबीस राजकुमारों ने प्रयास किया लेकिन असफल रहे और परिणामतः अम्वों के लिए चारा पीसने वाली कालकोठरी में सड़ रहे है। एक बहादुर और शूरवीर ठाकुर, जो अपनी पत्नी की नथ के बीच से रोज 108 बाणों को पार कर देता है, राजकुमारी के समक्ष अपना भाग्य आजमाना चाहता है। उसके साथ क्या होता है? क्या वह चौबोली को जीत पाता है? कहानी के भीतर कहानी और उस कहानी के भीतर एक अन्य कहानी को समोए हुए दास्तान-ए-चौबोली हास्य-विनोद, व्यंग्य, कटाक्ष और गीतात्मकता के साय भारतीय जीवन का चित्रण करती है।