बरसों से चली आ रही खबरों की क्रांति ने कई रूप बदले। नई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया। मतलब था समाचारों को जल्दी से जल्दी आम लोगों तक पहुंचाना। इसमें, अखबारों, रसालों, और समाचार एजेंसियों की बहुत बड़ी भूमिका थी। इसके बाद रेडियो आया। उस पर समाचार आने लगे। अखबारों में साप्ताहिक और संध्या अखबार निकलने लगे। विभिन्न भाषाओं की अखबारों और रसालों ने देश को आर के करंजिया, एन राम, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, खुशवंत सिंह, वीरेंद्र, लाला जगत नारायण, यश और भी न जाने कितने बड़े बड़े संपादक दिए। ये सभी वे लोग थे जिनके संपादकीय पढ़ने के लिए लोग अखबार खरीदा करते थे। अखबार में छपी खबर के ग़लत होने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था।
अगर किसी खबर पर अखबार के खेद जताना पड़ता या माफी मांगनी पड़ती तो जिस रिपोर्टर ने खबर भेजी है उसकी नौकरी जाना तो तय था ही, साथ ही उस उपसंपादक और मुख्य उपसंपादक पर भी गाज गिरती जिन्हें ने उस खबर का संपादन किया होता। आज अखबारों में माफीनामे अक्सर देखे जा सकते हैं। इसका कारण है कि आज संपादक का पद केवल औपचारिक रह गया है। शायद एक भी संपादक ऐसा नहीं जिसके नाम से अखबार चलता हो। हालात यह है कि संपादकीय तक बाहरी लोगों से लिखवाए जाते हैं। पत्रकारों की नियुक्तियां इस आधार पर होती हैं कि कौन अखबार को कितने विज्ञापन ला कर दे सकता है। वेतन के नाम पर चंद सिक्के थमा दिए जाते हैं। अब तो पत्रकारों के लिए वेतन आयोग भी नहीं बनाया जाता।
हालांकि पहले भी वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने के लिए अदालतों का सहारा लेना पड़ता था। मालिक खुद ही संपादक बन बैठे हैं। कुछ मालिक पहले भी संपादक रहे हैं पर उनकी कलम में लिखने की ताकत होती थी। अब तो संपादक तक को लिखना नहीं आता, बेचारा मालिक क्या करे। मालिक के पास बेतहाशा पैसा है उसके धंधे भी कई हैं। उन धंधों को चलाने के लिए सियासी जमात की ज़रूरत होती है तो अखबार निकाल लिया या कोई न्यूज चैनल बना लिया और नहीं तो कम से कम राज्यसभा की सीट तो मिल ही जाएगी।
आज पत्रकारिता अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। और इसे सबसे पहले उन पत्रकारों से लड़ना पड़ रहा है जो पत्रकारिता का मुखौटा पहन सामने आ रहे हैं। ये लोग सभी सरकारों और मौजूदा व्यवस्था के लिए बहुत मुफीद हैं। वे एकदम सरकारों से मान्यता भी प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन ध्यान रहे पत्रकार तो वो है जिसे प्रतिष्ठित अखबार, रसाले छपते हैं, अपने लिए काम करने का मौका देते हैं या न्यूज चैनल पहचानते हैं। सरकारें तो लोकसंपर्क अधिकारी तैयार करती हैं। उनकी मान्यता केवल सरकारी सुविधाओं के लिए चाहिए। ऐसा करना सरकार की मजबूरी भी बन जाती है। पत्रकारों को खुश रखना यही तो कम है इस विभाग का। आज इतना ही। कल बात सोशल मीडिया पर।