विश्वकर्मा संकट में
रहते हैं आपकी मंडी में
है संकट घणा
दूर से ही देख कर बता देता है पर्यटक
वो भी जो आता हैं ट्रिपलिंग करके यहां
और वो भी जो
मौज-मस्ती और गुलछर्रे उड़ाने
जाता नहीं किसी ओर
किंतु-परंतु
दिखता नहीं उन्हें
जिन्हें बिठाया महंगी कुर्सी पर
वो क्यों पर्यटक
बनने का अभिनय करते हैं
भुल्लकड़ों
तुम्हारी कुर्सी भी
सकती है टूट
जैसे टुटा था पण्डोह का सौ वर्ष पुराने पुल
टांगे कुर्सी की हैं
तुम्हारी उसी धरा पर
जिस धरा को बैठने लायक बनाया था
कभी विश्वकर्मा के कहने पर
उसी आम जनता ने
जिन्होंने बिठाया तुम्हें कुर्सी पर
अब उन्हें घर पहुंचने के लिए
करने पड़ते हैं नदी-नाले और खड़े पहाड़ पार
खुद के बनाएं जुगाड़ पर
कभी वो डुब जाता है
तो कभी बच जाता है
होता हैं उसके साथ उसका परिवार भी
कितनी ही बार
क्या करें वो
कोई और उपाय नहीं उसके पास
पुल नहीं बनता तो
पार करने ‘हेतु’
कोई कश्ती ही बनवादो
चाहो तो उस पर अपनी
प्रतिमा भी लगवा दो
तुम तो पहुंच जाते हो अपने घर आराम से
उसे भी तो कभी अवसर दो