15 अगस्त 1947 के दिन भारत पूर्ण रूप से अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हो कर, 3भागों में बंट गया था अर्थात भारत, पश्चिमी पाकिस्तान व पूर्वी पाकिस्तान। अब की बार हम अपना 78 वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहे हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि यह स्वतंत्रता कैसे प्राप्त हुई थी? नहीं, मैं जानता हूं तुम्हें शायद इसकी जानकरी नहीं होगी। बहुत ही जद्दोजहद हुआ था, इसके लिए। न जाने कितनी गोदें सूनी हो गई, कितनी बहिनों, माताओं के सुहाग मिट गए, कोई खबर नहीं! ये आजादी यूं ही, बैठे बैठे नहीं प्राप्त हुई लाखों के हिसाब से लोग शहीद हुए थे इसके लिए। अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की ज्वाला देश के कोने कोने से भड़क उठी थी, क्योंकि उनकी लूट पाट व अत्याचार दिन प्रतिदिन बढ़ते ही चले जा रहे थे। फलस्वरूप बंगाल में सैनिक विद्रोह, चुआड़ विद्रोह, भूमि विद्रोह व संथाल विद्रोह आदि एक के बाद एक होने लगे थे ।
1857 में तो विद्रोह नासूर की भांति फूट पड़ा था।फिर ऐसे ही लगातार पंजाब में कूका विद्रोह के साथ 1915 में रासबिहारी बोस व शचींद्र नाथ सन्याल ने विशेष रूप से बंगाल के साथ साथ बिहार, दिल्ली, राजपुताना व पंजाब से लेकर पेशावर तक कई एक छावनियां बना दी थीं। दूसरी ओर नेता जी सुभाष चंद्र बोस द्वारा आजाद हिंद फौज का गठन करके अपनी सरकार का चलन भी शुरू कर दिया था। देखते ही देखते देश के कोने कोने से नौजवान, क्रांतिकारी गतिविधियों में आगे आने लगे थे। इन्हीं में शामिल थे सरदार उधम सिंह, सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राज गुरु, सुख देव व मदन लाल ढींगरा आदि। इस आलेख में केवल शहीद उधम सिंह की ही चर्चा की गई है, (स्थानभाव के कारण) अन्य शहीदों की अलग से किसी अन्य आलेख में बात की जाएगी।
क्रांतिकारी शहीद उधम सिंह का जन्म पंजाब में सुनाम के उपली नामक गांव के एक गरीब किसान के घर (माता श्रीमती नारायण कौर व पिता टहल सिंह जम्मू) 26 दिसंबर, 1899 को हुआ था। पिता टहल सिंह उपली गांव के रेलवे क्रॉसिंग पर चौकीदार की नौकरी करते थे। उधम सिंह का वास्तविक नाम शेर सिंह था व दूसरे बड़े भाई को साधु के नाम से जाना जाता था। बालक उधम अभी मात्र 3 वर्ष का ही था तो इसकी माता नारायण कौर का निधन हो गया था। वर्ष 1907 के अक्टूबर माह में दोनों भाई अपने पिता टहल सिंह के साथ अपने गांव उपली से पैदल ही अमृतसर के लिए चल दिए थे। रास्ते में ठंड और भूख प्यास के कारण चलते चलते थक कर, पिता टहल सिंह गिर गए और उन्हें हस्पताल जाना पड़ गया था लेकिन उधर उपचार के मध्य ही उनकी वही मृत्यु हो गई। इस तरह कुछ दिन चाचा के पास रहने के पश्चात दोनों बच्चों को केंद्रीय खालसा अनाथालय में छोड़ दिया गया। अनाथालय के नियमानुसार साधु का नाम मुक्ता व शेर सिंह का नाम उधम सिंह रख दिया गया। दोनों भाइयों की शिक्षा दीक्षा पुतली के खालसा अनाथालय द्वारा ही चलती रही। इस तरह वर्ष 1918 में दसवीं पास करने के पश्चात उधम सिंह ने अनाथालय वर्ष 1919 में छोड़ दिया और नौकरी की तलाश इधर उधर करने लगा था। प्रथम विश्व युद्ध के समय उधम सिंह ब्रिटिश भारतीय सेना में भर्ती हो कर 32 वें सिख पायनियर्स में निम्न रैंक के श्रमिक इकाई में शामिल हो गया। इस श्रमिक इकाई में उधम सिंह का कार्य इराक के तट क्षेत्र से बसरा तक रेल के आने जाने को देखना होता था। लेकिन उधम के व्यवहार व आयु कम होने के कारण ही उसे छह माह से पूर्व ही वापिस पंजाब भेज दिया गया। वर्ष 1918 में दूसरी बार फिर से सेना में भर्ती हो गया, अब की बार इसे पहले बसरा और फिर बगदाद भेज दिया गया, जहां पर वह बढ़ई के कार्य के साथ साथ मशीनों व वाहनों की देख रेख किया करता था। एक वर्ष पश्चात वर्ष 1919 में वह वापिस अमृतसर अपने अनाथालय (पुतली घर) पहुंच गया और इधर अब अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन की गतिविधियों में भी भाग लेने लगा था।
10 अप्रैल, 1919 के दिन जब कुछ कांग्रेसी नेता जिसमें सतपाल, सैफुलदीन किचलू व कई स्थानीय नेता शामिल थे को रॉलेट एक्ट के अधीन गिरफ्तार कर लिया गया और साथ ही अंग्रेज सैनिकों द्वारा वहां एकत्र हुई भीड़ पर गोलियां बरसानी शुरू कर दी गईं, परिणामस्वरूप उधर दंगे होने लगे और कई बैंकों में लूट पाट भी की गई। भीड़ ने अंग्रेज सैनिकों की भी साथ में पिटाई कर डाली।
इस सारी घटना के परिणाम स्वरूप अंग्रेजों ने अपनी हुई फजीहत का बदला लेने के लिए 13 अप्रैल, 1919 वैसाखी वाले दिन, जिस समय जलियांवाला वाले बाग में 20 हजार से अधिक निहत्थे लोग इक्कठे हो कर (निर्दोष लोगों की गिरफ्तारी का ) शांति पूर्वक विरोध कर रहे थे और वहीं पर सरदार उधम सिंह अपने अनाथालय के दूसरे साथियों के साथ विरोध कर रहे लोगों को पानी पिलाते हुवे सेवा में व्यस्त थे तभी उधर से कर्नल रेजीनाल्ड डायर अपने सैनिकों सहित जालियां वाले बाग में दाखिल हुआ और उसने बाग के सभी प्रवेश द्वारों को बंद करवा कर, इकट्ठी हुई भीड़ पर गोलियां चलाने का आदेश दे दिया। लोग बाहर तो जा नहीं सकते थे, गोलियां खाते हुए कई लोग कुएँ में कूद कर मर गए तो कई इधर उधर भागते भागते मारे गए। इस तरह अंग्रेजों द्वारा अपने अपमान का बदला सैकड़ों बच्चे, बूढ़े व निहत्थे लोगों को मार कर ले लिया। लेकिन सरदार उधम सिंह निहत्थे लोगों पर हुए उस खूनी प्रहार को देख नहीं पाया, उसकी रूह कांप उठी। तभी से उसने ठान लिया कि वह अंग्रेजों से निर्दोषों के खून का बदला ले कर रहेगा।
इसी त्रासदी के कारण ही वह खुलकर स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियों में शामिल हो गया और वर्ष 1924 में गदर पार्टी से जुड़ कर विदेशों में रह रहे भारतीयों को अंग्रेजों के विरुद्ध उकसाने की योजनाएं बनाने लगा। वर्ष 1927 में वह (सरदार भगत सिंह के आदेशानुसार) अपने 25 साथियों के साथ गोला बारूद व हथियार ले कर भारत लौटा तो उसे बिना लाइसेंस के हथियार व गदर पार्टी से संबंधी साहित्य रखने का आरोप लगा कर गिरफ्तार कर लिया गया। इसके साथ ही* गदर दी गंज*(विद्रोह की आवाज) नामक पुस्तक को भी जब्त कर लिया गया। फिर मुकदमा चला कर बाद में उसे 5 साल जेल की सजा भी दी गई। इसके बाद जब वह जेल से रिहा हुआ तब भी उसकी समस्त गतिविधियों पर नजर रखी जाने लगी। लेकिन सरदार उधम सिंह भी कहां कम था, वह भी कश्मीर होते हुए अंग्रेजों को चकमा देकर जर्मनी जा पहुंचा और फिर वर्ष 1934 में लंदन पहुंच गया। यहीं पर इंजीनियर की नौकरी भी करने लगा और साथ ही साथ ओ डायर को उड़ाने की योजना भी बनाने लगा। अपनी योजना के अनुसार ही उधम सिंह ने 13 मार्च, 1940 को, जिस दिन ओ डायर कैक्टसन हाल में भाषण देने आया था, उधम सिंह ने अपनी जैकेट की जेब से रिवॉल्वर निकाला और बैठक में डायर के भाषण के समाप्त होते ही, वह मंच की ओर पहुंच गया और ओ डायर पर दो गोलियां दाग दीं, जिसके साथ कई दूसरे लोग भी घायल हो गए। उधम सिंह को तुरंत उसी समय गिरफ्तार कर लिया गया। इसके 20 दिन के पश्चात ही, प्रथम अप्रैल, 1940 को आरोप लगा कर उसे ब्रेक्सटन जेल भेज दिया गया। आखिर 4 जून, 1940 को उस पर हत्या का आरोप लगते हुए 31 जुलाई, 1940 को ही फांसी की सजा पेंटनकिले जेल में दे दी गई। इतना कुछ हो जाने के पश्चात भी क्रांतिकारी सरदार उधम सिंह अपनी सच्चाई ,ईमानदारी व देश भक्ति की भावना से अंश भर भी पीछे नहीं हुआ। उसने कहा था, “मैंने ओ डायर को इसलिए मारा क्योंकि मुझे उससे दुश्मनी थी और वह इसी लायक था। मुझे किसी की भी परवाह नहीं और न ही मुझे अपने मरने पर कोई एतराज है। बूढ़े हो कर मरने का इंतजार करने से क्या फायदा, देश पर मर मिटने से मुझे गर्व है। हां, मैंने दो गोलियां चलाई थीं। मैंने पब्लिक हाउस के सिपाही से रिवॉल्वर खरीदी थी।”
कितने उच्च विचार रखते थे शहीद उधम सिंह ,तभी तो उसने जेल में रहते अपना नाम उधम सिंह के स्थान पर *राम मुहम्मद सिंह आजाद * बताया था, जिसमें तीनों धर्मों की पहचान आ जाती है। शहीद उधम सिंह ने विदेश में रह कर गुजर बसर के लिए वहीं मैक्सिकन लड़की लूपे हरनाडेज विवाह करके नौकरी प्राप्त की थी ,जिससे उनके दो बच्चे भी हुए थे। आखिर उस महान शहीद क्रांतिकारी सरदार उधम सिंह के अवशेष 1974 में ज्ञानी जैल सिंह जी के प्रयासों से भारत लाए गए, शहीद का अंतिम संस्कार विधिवत रूप से करने के पश्चात अस्थियों को गंगा में प्रवाहित किया गया। शहीद की याद में ही डाक तार विभाग द्वारा एक टिकट भी जारी किया गया। इसी तरह शहीद की याद में ही वर्ष 1995 में मायावती द्वारा उतराखंड के एक जिले का नाम शहीद उधम सिंह नगर रखा गया, जो हम सभी के लिए गर्व की बात है।
आज हम सिर उठा कर कहते हैं कि हम स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र नागरिक हैं, लेकिन देश के लिए मर मिटने व कुर्बानियां देने वालों को पहचानते तक नहीं, ऐसे ही कितने शाहिद देश के लिए मर मिटे थे, उनके संबंध में धीरे धीरे कुछ न कुछ जानकारी पहुंचाने की कोशिश जारी रखूंगा। अंत में स्वतंत्रता दिवस की इस पावन बेला पर सभी क्रांतिकारी शहीदों को शत शत नमन के साथ आप सभी को हार्दिक बधाई।
बहिन भाई के स्नेह का त्यौहार : रक्षा बंधन कहो या राखी – डॉ. कमल के. प्यासा