मिट्टी से कंकर आदि निकाल, उस (चौकीदार) ने अखाड़े के एक ओर कुर्सियां सजा दी थीं। आगे वाली पंक्ति में मुख्य अतिथि के साथ आयोजक आदि बैठ चुके थे ।दंगल जोर शोर के साथ शुरू हो गया था।
सुबह से अकेले ही उस अखाड़े को देखता निहारता और मेहमानों को पानी आदि पिलाता, (थके हारे कुछ क्षण के लिए) विश्राम की चाहत से वह (चौकीदार), उस पीछे की पंक्ति में खाली पड़ी कुर्सी पर बैठ गया और कंधे के गमछे से मुंह पोंछने लगा। अभी चेहरे का पसीना पोंछ ही रहा था कि पीछे से ठाकुर साहिब (पूर्व प्रधान) दंगल का शोर सुन, वहां पहुंच गए।
“ओए, उठ चल खड़े हो जा तेरे बैठने को है ये कुर्सी?” ठाकुर साहिब ने आंखे दिखाते हुवे उससे मालिकाना अंदाज में कहा। बेचारा चौकीदार डरा सहमा एकदम उठ, हाथ जोड़े खड़ा हुआ। उसने जल्दी से कंधे पे रखे गमछे से कुर्सी को करीने से पोंछा और उसे ठाकुर साहिब के आगे मोड़ दिया। खुद डरा सहमा नजरें झुकाए कुर्सी की पीछे खड़ा न जाने क्या क्या सोचता रहा?
ठाकुर साहिब ठसक कर उस कुर्सी पर बैठ चुके थे और मालिकाना अंदाज से अभी भी बोले जा रहे थे, “कुर्सी पर बैठते हैं अरे औकात तो देख लिया करो अपनी!” वह बेचारा सब कुछ देखता सुनता अनदेखा कर चुपके से इधर उधर देखता है कोई देख तो नहीं रहा और फिर न जाने किधर ओझल हो जाता है।