
उसकी उंगली उठी, उस पे !
और उसकी, उस पे !
मैं ,उन उठी उंगलियों
की आड़ में,
छिप के बड़ी चालकी
और होशियारी से,
ताड़ने लगा दोनों की
कारगुजरियों को !
वे दोनों प्रतिद्वंदी,
एक दूजे के प्रति
अंदर ही अंदर,
अपने आंतरिक वैमनस्य के
द्वंद में फंस गए
मैं उन दोनों के ,
आपसी भ्रम को दे हवा,
खूब गुलछरे उड़ाता रहा
और दोनों की कमजोरियों
भरपूर फायदा उठाता रहा !
मेरा फैसला बन इशारा
भिड़ता रहा उनको,
बस भिड़ता ही रहा !
वे दोनों तूं तूं मैं मैं को जा पहुंचे,
और अपने तकरारों से
बन बैठे तमाशा खुद ही !
उठी, नजरें उंगलियां
चारों ओर की उन पर !
मैं,मूक आंखें मूंदे
बस निहारता रहा,
निहारता ही रहा सब को
और दोनों के दंगल को