दीप्ति सारस्वत प्रतिमा, प्रवक्ता हिंदी, रा .व. मा. विद्यालय, बसंतपुर, शिमला

चलते हैं ऊनी कोट
पीढ़ी दर पीढ़ी
कुछ समाए रहते
अपने में
ख़शबू माँ की
तो कुछ समा लेते
गंध पिता की
घिसते या फटते नहीं
ये आसानी से
रंग भी ऐसे नहीं होते
कि पड़ जाएं फ़ीके
इसी लिए
अपना लिए जाते ये
प्रेम के नाम पर
निशानी के नाम पर या
आवश्यकता के नाम पर
विरासत में मिली
चीजों के साथ
यों ज़रूरी नहीं
कि माँ या पिता के
न रहने पर ही
अपनाया जाए इन्हें
कॉलेज जाते बच्चे
समझते हैं जिसे
नए फैशन का कोट
वह फैशन वाला कोट
माता – पिता
अपने ज़माने में पहन कर
ऊब उकता कर
या बदन फैल जाने पर
रख छोड़े थे
ट्रंक में
इसी आस में
कि एक दिन वापस
आएगा इसी का फैशन
और बच्चे हो चुके होंगे
इसमें समा जाने लायक बड़े
तब काम आएगी
दूरंदेशी
और सगर्व वे ढांपेंगे
अपने समस्त संचित
ताप से
संतान को सर्द मौसमों में

 

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