उपन्यास सम्राट, समाज सुधारक, नेक एवं कुशल अध्यापक, संपादक, प्रकाशक के साथ साथ स्वाधीनता संग्राम व असहयोग आंदोलन में महात्मा गांधी का कर्मठता से अनुसरण करने वाला ,वह सीधा सादा व्यक्तित्व अर्थात लेखक मुंशी प्रेम चंद से भला कौन परिचित नहीं?
मुंशी प्रेम चंद, जिनका असली नाम धनपत राय था, का जन्म कायस्थ परिवार की माता आनंदी देवी व पिता मुंशी अजायब राय के घर, लमही गांव वाराणसी में 31 जुलाई, 1880 को हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा फारसी में लेने के पश्चात जब ये सात वर्ष के ही थे तो इनकी माता का देहांत हो गया, घर गृहस्थी को चलाने के लिए पिता ने दूसरी शादी कर ली और जब धनपत राय पंद्रह बरस का हुआ तो उसकी शादी भी जबरदस्ती से करवा दी गई, जबकि धनपत राय शादी के लिए तैयार नहीं था। धनपत की शादी के एक बरस बाद ही पिता अजायब राय का भी देहांत हो गया। घर की बिगड़ी परिस्थितियों में भी धनपत राय ने रोजी रोटी के जुगाड के साथ ही साथ अपनी शिक्षा में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं आने दी और संघर्ष के साथ साथ वर्ष 1898 में दसवीं भी पास कर ली। इस प्रकार लगातार मुसीबतों का सामना करते हुए, पहली पत्नी के देहावसान के पश्चात, वर्ष 1906 में, सुशिक्षित बाल विधवा शिवरानी देवी नामक महिला से दूसरी बार शादी के बंधन में बंध गए व दो बेटों तथा बेटी के पिता होने का सौभाग्य प्राप्त किया। अपनी नौकरी और शिक्षा को जारी रखते हुए ही 1910 में इंटर पास करने के पश्चात, 1919 में बी .ए . उत्तीर्ण करके शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर के पद पर नियुक्त हो गए। इन सभी कार्यों के साथ ही साथ धनपत राय अब उर्दू व हिंदी में साहित्यिक लेखन व अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन की गतिविधियों में भी शामिल होने लगे थे। इनके लेखन में सामाजिक चेतना, यथार्थवाद, ग्रामीण व किसानी जीवन, सामाजिक शोषण, ऊंच नीच, जातिवाद, सामाजिक रूढ़ियां व कुरीतियों की खुल कर चर्चा रहती थी। इन्होंने अपनी कहानियों व उपन्यासों के माध्यम से महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए, अपनी रचनाओं द्वारा (ब्रिटिश सरकार के अन्याय और शोषण को देखते हुए ) जन जन में देशभक्ति की भावना जागृत कर दी थी।
वर्ष 1921 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी के साथ असहयोग आंदोलन व स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो कर धनपत राय ने अपनी नौकरी से भी त्याग पत्र दे दिया था और खुल कर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने लगे थे। इसी समय इन्होंने सरस्वती प्रेस खरीद कर जागरण तथा हंस का प्रकाशन व संपादन शुरू कर दिया था। इसके पश्चात पटकथा लेखन के लिए बंबई फिल्मी दुनियां में भी जा पहुंचे थे, लेकिन तीन वर्ष के बाद वहां से वापिस लौट आए।
धनपत राय द्वारा वर्ष 1908 में लिखित कहानी संग्रह “सोजे वतन” के प्रकाशित होते ही, अंग्रेजों ने इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और समस्त प्रकाशित पुस्तकें जब्त कर ली थीं। इसके पश्चात ही अपनी पहचान को छुपाते हुए ही धनपत राय के नाम के स्थान पर प्रेम चंद के नाम से छपने लगे थे। फिर समस्त लेखन प्रेम चंद के नाम से होने लगा था। इनके द्वारा लिखित साहित्य में कुछ एक मुख्य कृतियां इस प्रकार से गिनाई जा सकती हैं: निर्मला, रंगभूमि, कर्मभूमि, सेवा सदन, कफ़न, पांच परमेश्वर, बूढ़ी काकी, बड़े घर की बेटी, दो बैलों की कथा, ईदगाह, नामक का दरोगा, शतरंज के खिलाड़ी, ठाकुर का कुआं, सवा सेर गेहूं, गोदान, प्रेमाश्रम, संग्राम, कर्बला और प्रेम की वेदी जैसी कई एक रचनाएं शामिल हैं। जिनमें कहानियां, उपन्यास, नाटक व निबंध आदि आ जाते हैं। इनकी लिखी कहानियों की संख्या लगभग 300, उपन्यास 18 व चार नाटक बताए जाते हैं। प्रेम चंद जी का यह सृजन कार्य अंतिम समय तक चलता रहा था। जिनमें मंगल सूत्र इनका अंतिम उपन्यास बताया जाता है, जो कि अधूरा ही रह गया है। इस प्रकार महान उपन्यास सम्राट, मुंशी प्रेम चंद अपनी लम्बी बीमारी के पश्चात आखिर 8अक्टूबर, 1936 को इस संसार को छोड़ गए।
इस तरह 1918 से 1936 तक के कहानी व उपन्यास के काल को, प्रेम चंद का युग कहना उचित ही जान पड़ता है। क्योंकि इनकी कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से ही अन्याय व शोषण संबंधी (गरीबों, किसानों व मजदूरों की समस्याओं को दर्शा कर व उनमें अंग्रेजों के प्रति ) आक्रोश पैदा कर राष्ट्रीय चेतना व देश भक्ति की भावना पैदा की गई थी। इन सभी के साथ ही साथ स्वतंत्रता, समानता और न्याय जैसे मुद्दों को भी स्थापित कर अपने अधिकारों के प्रति उन्हें जागृत भी किया गया था। इस प्रकार उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेम चंद एक साहित्यकार होने के साथ ही साथ एक सुलझा दूरदर्शी व्यक्तित्व, समाजशास्त्री, चिंतक, सुधारक, मानवतावादी के साथ ही साथ देश हितकारी देश भक्त भी था। उनकी इस पावन जयंती पर मेरा शत शत नमन।
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