तरह तरह की एकादशियों में एक हरिशयनी एकादशी भी आ जाती है, जिसे कि देवशयनी व पद्मा एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। यह एकादशी आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में पड़ती है, जब सूर्य मिथुन राशि में प्रवेश करता है। इसी समय से भगवान विष्णु का शयनकाल और चारमासा भी शुरू हो जाता है। चार मास के पश्चात ही जब प्रबोधनी एकादशी को भगवान विष्णु जागृत होते हैं तो शयन का यह सारा समय श्री हरि विष्णु द्वारा क्षीर सागर में ही व्यतीत होता है। इस संबंध में ऐसे भी बताया जाता है कि भगवान विष्णु ने राजा बलि के पास पाताल लोक में रहने का वचन भी दे रखा था, इसलिए वह पाताल में राजा बलि के द्वार पर चार मास तक शयन करके, कार्तिक शुक्ल की एकादशी को वापिस लोटते (जागृत होते) हैं, जिसे प्रबोधिनी एकादशी भी कहा जाता है। जब कि इस अवस्था में सूर्य तुला राशि में प्रवेश करता है। भगवान विष्णु हरी के शयन के चार महीनों में किसी भी शुभ कार्य को नहीं किया जाता अर्थात यज्ञोपवीत, विवाह शादी, दिक्षा ग्रहण, यज्ञ, गृह प्रवेश गौदान व प्रतिष्ठा आदि सभी कार्य बंद रहते हैं। लेकिन हां कोई मुरम्मत का काम, वाहन व आभूषणों की खरीद आदि की जा सकती है। भगवान विष्णु के इस हरिशयन को पुराणों (भविष्य, पद्म व भागवत पुराण) में योगनिद्रा कहा गया है। इसी योगनिद्रा के कारण ही इस काल में बादलों व वर्षा के फलस्वरूप सूर्य व चंद्रमा का तेज कम हो जाता है जो कि भगवान विष्णु के शयन का ही कारण बताया जाता है। आगे इसी के परिणाम से पित्त (अग्नि) की गति शांत होने लगती है और शारीरिक गति विधियां भी ढीली पड़ जाती हैं। भगवान विष्णु के शयन का एक दूसरा कारण शास्त्रों में यह भी मिलता है कि आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन ही हरी विष्णु जी ने दैत्य शंखासुर का वध करने के बाद थकान के कारण क्षीर सागर में शयन को चले गए थे। इसी प्रसंग से जुड़ी पातल लोक के प्रतापी राजा बलि की पौराणिक कथा में बताया गया है कि वह बहुत ही विनम्र व दानी प्रवृति का राजा था। कहते हैं एक बार यज्ञ के अवसर पर वामन रूप में भगवान विष्णु जी ने राजा बलि के पास पहुंच कर तीन पग रखने के लिए स्थान की मांग रखी, जिसके लिए दानी राजा बलि ने हामी भर दी। वामान अवतार भगवान विष्णु ने अपने पहले ही पग से सूर्य, पृथ्वी और आकाश को मांप कर अपने दूसरे पग से स्वर्ग लोक को माप लिया था, तब तीसरे पग को रखने के लिए राजा बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए अपना सिर ही आगे कर दिया था। जिस पर भगवान विष्णु प्रसन्न हो गए और उन्होंने पाताल लोक बलि को दे कर उसे वर मांगने को कह दिया। तब बलि ने भगवान विष्णु को ही अपने यहां महल में रहने का वर मांग लिया था। जिस पर देवी लक्ष्मी ने बलि राजा को अपना भाई बना कर व अपने पति भगवान विष्णु को वचन (वर) बंधन से मुक्त करा लिया और बदले में तीनों देवों अर्थात ब्रह्मा,विष्णु व महेश को चार चार मास के लिए निवास करने के लिए कह दिया था। जिसके अनुसार भगवान विष्णु देवशयनी एकादशी से देवउठानी एकादशी तक, भगवान शिव (महेश) महाशिवरात्रि तक, तथा देव ब्रह्माजी शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक निवास करने के लिए कहे गए थे।
देवशयनी एकादशी के व्रत का बहुत ही महत्व बताया जाता है, अर्थात इस व्रत के रखने से सभी तरह के पापों व किसी भी तरह के किए अपराधों आदि से मुक्ति मिल जाती है साथ ही सभी तरह की मनोकामनाएं भी पूर्ण होती हैं। जिनका विस्तार से वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण व पद्म पुराण से मिल जाता है। इसमें किए जाने वाले व्रत के महत्व संबंधी एक पौराणिक कथा भी सुनने को मिलती है। कथा के अनुसार बताया जाता है कि सतयुग में भांधाता नाम का एक बड़ा ही प्रतापी राजा हुआ करता था। उसके राज्य में सभी जन बड़े ही सुख चैन से रहते थे, लेकिन वर्षा न होने व आकस्मिक अकाल पड़ जाने से प्रजा में त्राहि त्राहि मच गई थी और प्रजा अपने राजा के पास पहुंच कर फरयाद करने लगी थी। इस प्रकार राज्य में प्रजा दुख के साथ ही साथ सभी तरह के धार्मिक कार्य भी रुक गए थे। भांधाता राजा चारों तरफ से दुखों से घिर चुका था, एक दिन अपने दुखों के समाधान के लिए वह जंगल की ओर चल दिया और वहां वह देव ब्रह्मा के पुत्र ऋषि अंगिरा के आश्रम में जा पहुंचा और अपनी सारी व्यथा ऋषि अंगिरा से कहा सुनाई। ऋषि अंगिरा ने सारी समस्या को जड़ से मिटाने के लिए राजा भांधाता को आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की देवशयनी एकादशी का व्रत करने कहा। राजा ने ऋषि को प्रणाम करते हुए अपना आभार व्यक्त किया और वापिस अपने राज्य लौट आया। ऋषि द्वारा कहे अनुसार देवशयनी एकादशी का व्रत रखने के पश्चात ही भारी बारिश होने लगी और सबको अकाल से निजात मिल गई। इसके पश्चात राजा और प्रजा सभी सुख चैन से रहने लगे।
देवशयनी एकादशी की पूजा पाठ व व्रत के लिए सबसे पहले ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान करके, स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए। घर आंगन में स्वच्छ जल का छिड़काव करके साफ सुथरे लकड़ी के पटड़े पर भगवान विष्णु लक्ष्मी की सोने, चांदी या किसी अन्य धातु की प्रतिमा को गंगा जल से स्नान कराकर पटड़े पर पीले रंग के वस्त्र पर रख कर स्थापित करना चाहिए। इसके साथ तुलसी दल, धूप दीप के साथ भोग आदि रख कर विधि विधान से पूजा पाठ करना चाहिए।