कल्पना गांगटा, शिमला
माँ एक प्रतिमा है,
सदियों से हमें प्रेम की छाया देती आई,
रात-रात जागकर सुलाती हमें है आई,
नींद बेचकर अपनी सहलाती हमें रही ।
माँ वो देवी है, खुद को भुला संवारती हमें रही,
हमारी ही खुशी में, जिसने खोजी अपनी खुशी,
वही तो है ये माँ, कांटो पर चलकर भी जो मुस्कुराती रही ।
दुनियाँ ठोकर मार ले चाहे,
किस्मत भी जो रूठ कर चली जाए,
तब नहीं हमें भुलाती,
दर्द हमारे खुद में समा लेती ये माँ ।
जग भंवर में जब कभी हम फंस जाएँ,
दोराहे पर जब खड़े हो जाएँ,
आते हैं तब भी काम, इसी की दुआ इसी का नाम ।
माँ है वो मिसाल, पीड़ा करके सहन,
देती है हमें जन्म ।
संस्कार देकर नादान से इंसान बनाती,
पूर्णतया समर्पित है वो माँ,
असल में चुका नहीं सकते,
हम इसके एहसान ।
बेहतरीन
Wow..very nice poem …very true
Truly described ….
very nice poem