त्यौहार कोई भी क्यों न हो ,उसकी प्रतीक्षा तो रहती ही है और फिर कई कई दिन पहले ही त्यौहार को मनाने की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। बसंत ऋतु की बसंत पंचमी भी इंतजार के साथ निकल भी गई लेकिन बसंत अभी भी बरकरार है ,अभी पहले होली आ रही है जिसका भी बेसब्री से इंतजार हो रहा है,होली के बाद शिव रात्रि आने वाली हैऔर हम अभी से बड़ी ही उत्सुकता से प्रतिक्षा कर रहे हैं।
शिवरात्रि का त्यौहार भी अपनी च हल पहल व देवी देवताओं के रथों के आगमन से ,बसंत ऋतु को और भी महका देता है ,क्योंकि इन दिनों मौसम का मिजाज ही कुछ ऐसा रहता है कि न गर्मी का एहसास होता है और न ही ठंड का पता चलता है ,तो भला फिर क्यों न इस मौसम का शिवरात्रि के इस त्यौहार के साथ आनंद लिया जाए। तो चलते हैं और इस त्यौहार शिवरात्रि के भी रूबरू हो लेते हैं। कैसे कैसे मनाया जाता है यह पर्व रूपी त्यौहार ? किस देवता से संबंध है इसका तथा किस लिए इसे मानते हैं? यदि शिवरात्रि का अर्थ समझा जाए ,तो यही अर्थ निकलता है कि यह वह रात्रि होती है जो भगवान शिव से संबंधित रहती है और इसे ही शिव रात्रि के नाम से जाना जाता है।
कहीं कहीं कश्मीरी पंडित लोग इसे हर रात या हर रात्रि और हेराथ भी कहते हैं।देखा जाए तो वर्ष में कुल मिला कर 13 ही शिवरात्रियां आती हैं,जिनमें से हर माह आने वाली शिवरात्रि (जो कि कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को आती है) को केवल शिवरात्रि के नाम से जाना जाता है ।इस तरह कुल मिला कर मासिक शिवरात्रियाँ 12 बन जाती हैं।वर्ष में एक बार आने वाली शिवरात्रि महा शिवरात्रि के नाम से जानी जाती है और जिसे फागुन कृष्णा चतुर्दर्शी भी कहा जाता है।
पौराणिक साहित्य के अनुसार इस दिन भगवान शिव व देवी पार्वती की शादी हुई थी ,इसी लिए हिंदुओं के लिए इस दिन का अधिक महत्व रहता है और त्यौहार को इसी लिए बड़े ही धूम धाम से सभी जगह मनाया जाता है।कहीं कहीं देवी पार्वती के सती होने की कथा को भी इस दिन से जोड़ा जाता है और शिव द्वारा तांडव नृत्य करने व उनके तीसरे नेत्र के तेज से ब्रह्माण्ड के विनाश करने वाली कथा से ( कहीं कहीं ) भी महा शिवरात्रि के संबंध बताए जाते हैं।
ऐसे ही आगे भगवान शिव द्वारा समुद्र मंथन से निकलने वाले विष को पीने व देवताओं तथा असुरों की रक्षा करने वाली कथा भी इसी से जोड़ी जाती है। कुछ भी हो महा शिवरात्रि का यह दिन शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव के प्रकट होने का ही दिन भी बताया गया है और इसी दिन शिव निराकार से साकार रूप में आए थे।इसी लिए इस दिन भगवान शिव की पूजा अर्चना के लिए पंचगव्य(दूध,दही,घी,मधु और शक्कर) के लेप व बाद में मंदोषण जल से स्नान करने का विधान बताया गया है।
शिवरात्रि में पूजन के लिए बिलपत्र,धतूरा,अंबीर ,गुलाल,बेर,उम्बी व भांग आदि को विशेष रूप से प्रयोग करने के लिए बताया गया है। पूजा में भगवान शिव के मंत्र ,ओम नम:शिवाय का 108 बार जाप (रुद्र संहितानुसार )बताया गया है।महा शिवरात्रि के दिन रखे गए व्रत में कुछ नहीं खाया जाता ,व्रत के पश्चात फल आदि ही ग्रहण किए जाते हैं और इस व्रत से 100 से भी अधिक यज्ञों का फल
प्राप्त होता है।कहते हैं की शिवरात्रि के दिन शिव पूजन से सभी प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति होती है,वैसे भी इनकी आराधना से मनवांछित वर या वधु की प्राप्ति होती है और विवाह भी इनकी कृपा से शीघ्र व ठीक विधि विधान से हो जाता है।भगवान शिवजी के भोग में ठंडाई(बादाम, ख़स खस,काजू,पिस्ता,सौंफ,छोटी इलायची,काली मिर्च व भांग आदि का जल युक्त मिश्रण) मॉल पुड़े व अन्य दूध की बनी सामग्री बताई जाती है।
पूजा अर्चना में भगवान शिव को चढ़ाएं व अर्पित करने वाले पदार्थों व वस्तुओं का देश में हर जगह अपना अलग अलग ढंग व अपनी अपनी आस्था व उपलब्ता के अनुसार ही है।वैसे देश में सभी जगह शिवरात्रि का त्यौहार मनाया जाता है और कुछ लोग व्रत भी रखते हैं लेकिन कुछ एक स्थानों में इस त्यौहार को विशेष रूप से मनाए जाने के कारण ही,उन स्थानों की विशेष पहचान बन चुकी है।
मध्य प्रदेश में उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर इसी कारण अपनी विशेष पहचान व महत्व रखता है। कश्मीर में तो 3_4 दिन पहले ही शिव पार्वती विवाह का आयोजन शुरू हो जाता है और फिर आगे दो दिन तक त्यौहार को मनाया जाता है। यदि दक्षिण भारत (आंध्र प्रदेश,कर्नाटक,केरल,तमिल नाडु व तेलांगना )आदि के मंदिरों की बात की जाए तो वहां भी महाशिवरात्रि में भारी भीड़ इस त्यौहार में देखने को मिल जाती है।
इधर हमारे हिमाचल में तो इस त्यौहार को तो अंतरराष्ट्रीय व राज्यस्तरीय मेलों के रूप में भी देखा जा सकता है।अंतरराष्ट्रीय मेले के रूप में मण्डी की महा शिवरात्रि आ जाती है।महा शिवरात्रि के इस त्यौहार को मेले के रूप में राजा अजबर सैन(1497_1554 ई0) के समय से ही मनाया जा रहा है।1526 ई0 में ही राजा अजबर सैन द्वारा भूत नाथ मंदिर के निर्माण के पश्चात ही शहर में शिवरात्रि को मेले के रूप में मनाया जाने लगा था। अब मेले में मण्डी जिला के लगभग 250 देवी देवताओं के रथ अपने देवलुओं व गाजे बाजे के साथ पहुंच कर समस्त वातावरण को गुंजायमान करके देवमय बना देते हैं।ये सभी देव रथ सबसे पहले देव माधव राव के यहां अपनी हाजरी देते हैं ।
इसके पश्चात ही सभी अपने अपने ठहराव वाले स्थान पहुंचते हैं। बड़ा देव कमरूनाग का रथ मेले में शामिल नहीं होता बल्कि इनकी छड़ी (पंखा)ही मण्डी अपने देवालुओं के साथ पहुंचती है और वह भी अपने स्थान (तरना मंदिर) में ही रहती है। मेले वाले दिन सभी देवी देवता माधव राव मंदिर से निकलने वाली शोभा यात्रा(जलेब)में शामिल होते हैं ,जिसमे देव माधव राव की पालकी भी, मुख्य अतिथि,अधिकारियों व जनसमूह के साथ शामिल रहती हैं। प्रशासनिक अधिकारी द्वारा भूतनाथ मंदिर में पूजा पाठ के पश्चात शोभा यात्रा शहर की परिक्रमा करके पडडल (मेला स्थल)को प्रस्थान करती है,इस तरह मेला सात दिन तक अधिकारिक तौर पर चलता रहता है,लेकिन मेले की दुकानें अर्थात व्यापारिक मेला 20 _25 दिन तक चलता है।मेलों में शोभा यात्रा 7 दिनों में कुल मिला कर 3 बार निकलती है।
पहली शोभा यात्रा मेले के पहले दिन ,दूसरी मेलों के मध्य व तीसरी शोभा यात्रा मेले के समाप्त होने पर निकलती है। अंतिम मेले का आयोजन मुख्य बाजार चौहट्टा में रहता है और सभी देवी देवताओं के रथ चौहट्टा बाजार में ही विराजमान हो कर अंतिम दर्शन देते हैं।इस दिन मेले के समाप्त होने तक चौहट्टा से आने जाने वाली सभी तरह की गाड़ियां व रास्ता बंद रहता है,क्योंकि देव दर्शनों के लिए आए लोगों के कारण सारा बाजार ही देवमय हो जाता है और आम आना जाना भी मुश्किल हो जाता है।
मेले के समापन पर चौहट्टा बाजार से ही देवी देवताओं को चादरें भेंट कर के विदाई दी जाती है। मेलों में दिन के समय पडडल मैदान में खेलों व अन्य मनोरंजक कार्यक्रमों का आयोजन रहता है और रात्रि के समय सेरी मंच पर बाहर से आए व स्थानीय कलाकारों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।शेष सभी प्रकार के बहार से आए झूलों व तरह तरह के समान की दुकानें पडडल मैदान में ही सजती हैं।
किन्नौर की शिवरात्रि: हिमाचल के जिला किन्नौर में शिवरात्रि का शुभारंभ सबसे पहले किन्नर कैलाश की पूजा से होता और इधर शिवरात्रि का यह त्यौहार 3 दिन तक चलता है।पहले दिन बड़ी मात्रा में शाकरी (मैदे के फूल पापड़)तैयार किए जाते हैं।कहीं कहीं आटे का रोट भी बनाया जाता है,ऐसा भी बताया जाता है कि बनाती बार रोट कहीं से टूटना नहीं चाहिए,क्योंकि रोट के टूटने को अशुभ समझा जाता है। इस लिए रोट को बनाती बार बड़ी सावधानी बरती जाती हैं। पूजन के लिए ही भगवान शिव की प्रतीकात्मक कृति हरे पत्तों, जिनमें तेज़ पत्र,नर्गिस के पतियां वअन्य इसी तरह के हरे पत्तों को लेकर तैयार की जाती है।
इसके पश्चात शाकरी (फूल पापड़)के पहाड़ रूपी ढेर को थोड़ा बीच में से अंदर करके व मंदिर की तरह जगह बना कर वहां भगवान शिव व अन्य देवी देवताओं की प्रतिमाओं और चित्रों को सजा कर रख दिया जाता है।पत्तों से बनी भगवान शिव की कृति को बीच में लटका दिया जाता है। अन्य सामग्री व रोट आदि भी रख दिए जाते हैं ।इसके पश्चात , (इनकी अपनी ही ) शिव रात्रि की कथा को सुनाया जाता है।फिर सभी घर वाले व आए मेहमान मिलजुल कर नाचते गाते हैं।इसी तरह से दूसरे दिन जागरण होता है जिसमें भी नाचते गाते हैं।
दूसरी ओर किन्नौर के रूशकलंग गांव में लोग पारंपरिक लिबास में सजधज कर शिव पार्वती के रूप के मुखौटे धारण करके, नृत्य करते हुवे व गा गा कर धूम मचाते हुवे शिवरात्रि को मानते हैं। कांगड़ा बैजनाथ की शिवरात्रि :बैजनाथ का शिवरात्रि त्यौहार 5 दिन के लिए राज्यस्तर के मेले के रूप में मनाया जाता है।यहां भी मेला शुरू होने से पूर्व शोभा यात्रा निकाली जाती हैऔर विधिवत रूप से मुख्य शिव मंदिर बैजनाथ में पूजा अर्चना के पश्चात सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
बाहर से आए व्यापारियों द्वारा खूब दुकानें सजाई जाती हैं।मेले में बैजनाथ व आस पास क्षेत्रों के अतिरिक्त दूर दूर से भी भारी संख्या में श्रद्धालु पधारते हैं।इस प्रकार मेले और त्यौहारों का यह सिलसिला वर्ष भर हिमाचल में चलता रहता है।बाहर के व्यापारी इन्हीं मेलों से अपनी साल भर की रोजी रोटी कमा कर जहां प्रदेश की संस्कृति में आदान प्रदान करते हैं वहीं बाहर से आने वाले पर्यटक भी सांस्कृतिक आदान प्रदान के साथ ही साथ प्रदेश की आर्थिकी में भी सहायक सिद्ध होते हैं।