उत्तर भारत के तीज त्योहारों में करवा चौथ का त्योहार अपना विशेष स्थान रखता है और इसकी अपनी ही शान व पहचान है क्योंकि इसमें केवल महिलाएं ही अपने पति के कुशल क्षेम व लम्बी आयु के लिए व्रत रखती हैं। वैसे तो व्रत एक संकल्प होता है,जिसे करने के पश्चात ,उस पर चलने का प्रयास किया जाता है।दूसरे यदि इस प्रकार के संकल्प से अपने शरीर रूपी मशीन की भी देख भाल हो जाए तो उससे बेहतर ओर क्या चीज हो सकती है।यह व्रत रूपी संकल्प मानव शरीर के लिए एक प्रकार की वैज्ञानिक प्रक्रिया भी होती है।
जिससे शरीर के अंगों और उसकी कोशिकाओं के आराम के साथ ही साथ शारीरिक नव निर्माण भी होता है और शारीरिक क्षमता में भी वृद्धि होती है। इसी लिए भारतीय संस्कृति में इन व्रतों का अपना विशेष महत्व रहता है।ऐसे ही हमारा करवा चौथ का व्रत भी अपना विशेष स्थान रखता है और यह त्योहार कार्तिक मास की कृष्ण चतुर्थी (कर्का चतुर्थी)को होता है।लेकिन इसे करवा चौथ ही क्यों कहा जाता है ! करवा का शाब्दिक अर्थ ,मिट्टी का बर्तन होता है जिसके आगे टोंटी लगी होती है और चौथ का अर्थ चतुर्थी से लिया जाता है।
अर्थात करवा चौथ में व्रत के पश्चात जिस बर्तन से पानी पिया जाता है ,वही बर्तन करवा चौथ के नाम से जाना जाता है।आज कल मिट्टी के बर्तन के स्थान पर आम धातु के लोटे आदि का व्रत के पश्चात पानी पीने के लिए प्रयोग किए जाते हैं।अब प्रश्न उठता है कि आखिर क्यों कर इस (करवा चौथ के )व्रत को रखा जाता है,इसके पीछे क्या तथ्य हैं और पौराणिक कथाएं आदि इस संबंध में क्या कहती हैं, जानना जरूरी हो जाता है।
ऐसा भी बताया जाता है कि इस व्रत से पति की दिर्ग आयु होती है,सुख शांति और समृद्धि प्राप्त होती है।कुंवारी कन्याओं द्वारा इस व्रत के करने से उन्हें सुंदर और मनवांछित वर प्राप्त होता है।पौराणिक कथाओं में बताया गया है कि माता पार्वती ने भी भगवान शिव के लिए करवा चौथ का ही व्रत रखा था।जिसकी चर्चा नारद ,स्कंद,हरिवंश व वामन आदि पुराणों में मिल जाती है।
इस व्रत रखने पर जल तक भी ग्रहण नहीं किया जाता।केवल चंद्रमा के निकलने के बाद ही जल पिया जाता है।कुंवारी लड़कियां तारा निकलने पर उसको देख कर ही जल ग्रहण करती हैं। करवा चौथ के व्रत के लिए एक पौराणिक कथा में ऐसा भी बताया जाता है कि जब देव और असुर युद्ध में देवता हारने लगे तो उन्हें अपना स्वर्ग असुरों के अधिकार में जाता दिखने लगा था तो तब वे सभी समाधान के लिए देव ब्रह्मा जी के पास जा पहुंचे थे ।
उस समय ब्रह्मा जी ने इसके लिए सभी देवियों को (शक्तियों को) करवा चौथ का उपवास करने को कहा जिससे कि वे सभी अपने सुहाग को बचा कर सब कुछ बचा सकती थीं। तबी तो इसी व्रत को रख कर उन सभी देवियों ने अपने सुहाग के साथ ही साथ दैत्यों से स्वर्ग लोक को भी बचा लिया था ।ऐसी ही एक कथा सावित्री सत्यवान की भी आ जाती है ,जिसमे सावित्री अपने मृत पति को यमराज से वापिस जिंदा करवा लेती है।
इस व्रत को रखने के लिए घर की बुजुर्ग महिला या सास अपनी बहू को सरगी के लिए फल,दूध,फेनियां आदि देती है,जो कि बहू द्वारा सरगी के रूप में (सुबह 4,5 बजे)खाई जाती है ।सरगी के साथ अन्य श्रृंगार का सामान भी सास द्वारा दिया जाता है। सरगी सुबह सुबह ही 4 ,5 बजे खा ली जाती है और उसके बाद सारा दिन कुछ भी नहीं खाया जाता ,यहां तक कि पानी भी नहीं पिया जाता।पूजा पाठ में देव गणेश व शिव पार्वती की पूजा की जाती है।
सायं सभी करवा चौथ वाली महिलाएं श्रृंगार के साथ (मेंहदी लगा कर )सज धज कर किसी खुले स्थान में अपनी सजी हुई ड्राई फ्रूट की थाली के साथ इकट्ठी हो कर करवा चौथ की कथा का आयोजन करती हैं,कथा पंडित द्वारा या फिर किसी महिला द्वारा की जाती है और ड्राई फ्रूट की थाली सभी के बीच सात बार घुमाई जाती है।यही ड्राई फ्रूट्स से भरी थाली कथा के पश्चात सास को चरण स्पर्श करते हुवे उसे कुछ पैसों के साथ दे दी जाती है और सास बहू को फलने फूलने व सुहागवती होने का आशीर्वाद देती है।
व्रत को रात्रि के समय चंद्रमा को देख कर ही खोला जाता है।जिसमें पत्नी द्वारा दिआ जला कर छलनी से चंद्रमा और पति को देख कर जल अर्पित किया जाता है।इसके पश्चात पति पत्नी को करवे से जल पिलाता है और कुछ प्रसाद खिलाता है।पत्नी पति के चरण स्पर्श करती है और पति खुश रहने के लिए आशीर्वाद देता है।इस तरह व्रत खुल जाता है।
दूरियों के कम होने,जान पहचान के बड़ने व सांस्कृतिक मेल मिलाप के फल स्वरूप अब करवा चौथ का विस्तार चहूं ओर हो रहा है,जब की पहले पहल पंजाब,दिल्ली,हरियाणा,राजस्थान ,उत्तर प्रदेश व हिमाचल प्रदेश तक के लोग ही इसे मनाते थे , लेकिन अब दूसरे राज्यों की महिलाएं भी इस त्योहार को धूम धाम से व्रत के साथ मनाती हुई देखी जा सकती हैं।