सुदर्शन वशिष्ठ, शिमला
राजकुमार राकेश हिन्दी कहानी के सशक्त हस्ताक्षर हैं जो एक लम्बे समय से कहानी लिख रहे हैं। मेरा उन से परिचय तब का है जब वे शायद मण्डी के बलद्वाड़ा में अध्यापक थे। एक बार, जब मैं जिला भाषा अधिकारी मण्डी था तो उन्हें किसी आयोजन में बुलाया था। तब कहानी में उनका शैशव काल था। उसके बाद हिमाचल की प्रशासनिक सेवा में आ जाने पर भेंट होती रही। इस अंतराल में उनमें एक बड़ा परिवर्तन आया था। उनका कहना था कि जो मैंने आज तक लिख है, उसे मैं ख़ारिज करता हूं।
ये सब बेकार है। अब मैं नए सिरे से, नए ढंग से कहानियां लिखूंगा। मुझे बहुत हैरानी हुई पिछला लिखा हुआ सारा कैसे खारिज हो सकेगा। मगर उन्होंने अपनी पुरानी रचनाओं के प्रति निर्मम हो कर ऐसा किया और एक नई शुरूआत की। ‘‘राजकुमार राकेश: प्रतिनिधि कहानियां’’ का चयन विनोद शाही द्वारा किया गया है जिसका का प्रकाशन इसी साल 2023 में आधार प्रकाशन प्राईवेट लिमिटेड पंचकूला (हरियाणा) द्वारा हुआ हैl प्रस्तुत सकलन में दस कहनियां हैं। जाहिर है विनोद शाही ने अपने ढंग से श्रेष्ठ कहानियां ही चुनी होंगी। मेरी नज़़र से गुजरने वाली इनकी कथादेश में छपी “बंकर,” जैसी कई और कहानियां भी बेहतर कहानियां हैं।
दस कहानियां चुनने में अपना-अपना अलग नज़रिया हो सकता है। ये कहानियां अलग-अलग समय में लिखी गई होंगी मगर इस संकलन में एक सी तीन कहानियों का इकट्ठा आ जाना एक संयोग ही कहा जा सकता है l राजकुमार राकेश के कहन की एक अलग अंदाज है, अलग शैली है। इसी विशिष्टता के कारण ये आज तमाम छपने वाली दूसरी कहानियां से अलग नज़र आती हैं। पात्रों के नामकरण, रहस्यमयी परिस्थियां, अंदाजे-बयां में अलग फेंटेसी भरा वातावरण इन्हें विशिष्ट बनाता है। कथा विस्तार में एक कहानी अपने में अनेक प्रसंगों का बयान करती है। कथाकार की एक ही जगह विभिन्न काल खण्डों, विभिन्न मुद्दों, विभिन्न समस्याओं को डील करने की कोशिश रहती है। खासकर लम्बी कहानियों में ऐसा देखा जा सकता है। संत कहते हैं, क्षण में जियो। कथाकार अतीत में जीता है। अतीत का अजगर उसे बार-बार लील जाता है, फिर भी वह उसी में रहता बसता है।
बहुत सी चीजें उसे बार-बार हाॅण्ट करती हैं, विचलित करती हैं मगर उसी में जीना उसकी नियति है। यह भी है कि जो उसके मन में बसा है उसे वह बार-बार व्यक्त करने की कोशिश करता है। जाने-अनजाने में उसी का बखान बारम्बार करता है जो उसके अन्तर्मन में गहरे घर कर बैठा है, वह पुनः-पुनः बाहर आता है। ऐसा बहुत कथाकारों में देखा गया है कि वे बार-बार उन्हीं स्थितियों को दोहराते हैं, अलग-अलग वातावरण व सिचुएशंज तैयार कर के। मोहन राकेश की कहानियों में ऐसा स्पष्टताः दिखता है कि एक ही सिचुएशन कई कहानियों और यहां तक आगे चल कर नाटकों में भी दिखलाई पड़ती है। ऐसा ही कुछ राकुमार राकेश की कहानियों में भी देखने को मिलता है। पहले इनकी तीन कहानियों पर बात की जाएगी।
ये तीन कहानियां हैं: कैंसर वार्ड, एडवांस स्टडी और दादागिरी। संकलन में कुछ लम्बी और कुछ बहुत लम्बी कहानियां भी हैं। सबसे लम्बी और अंतिम कहानी ‘‘कैंसर वार्ड’’ से आारम्भ करते हैं जो सतासठ पृष्ठ की है यानि चंद पृष्ठ और जोड़ तो उपन्यासिक बन सकती है। कहानी पत्नी प्रीति को कैंसर अस्पताल ले जाने से आरम्भ होती है और लगता है कैंसर पर ही केन्द्रित होगी अलबत्ता कहानी वापिस जाती है अतीत में जो कैसर वार्ड से कम पीड़ादायक नहीं है। कहानी आज के समाज में भीतर तक फैले कैंसर की कहानी है जो दरकते चटकते सम्बन्धों, निर्मोही होती संतानों, बेबस पिताओं और इन सब के बीच विद्रोही होने की स्थितियों में पिता और पुत्र के बीच झूलती माताओं में तेजी से फैल रहे कैंसर की करूण दास्तान बयान करती है।
ऐसे परिवार कैंसर वार्ड में जीने को अभिशप्त हैं। बेबस पिता, घर छोड़ कर गए बेटे का दिल्ली में प्रेम विवाह और विवाह विच्छेद करने के लिए पलायन, विच्छेद होने में कानूनन पेचीदगियां; कुछ ऐसी विसंगतियां हैं जो एक तीन सदस्यी छोटे परिवार को भी तार-तार कर अलग कर देती हैं। कथानायक शंकरलाल वशिष्ठ का शैशव में मां की मृत्यु से उपजा दुखभरा अतीत, पिता के एक बार शिमला आने पर होटेल में खाना खिलाने की विवशता, मृत्युशैय्या पर पिता से मिलन और पिता द्वारा उसकी पंजाबी पत्नी को ‘‘जिंहडी’’ व बेटे सिद्धार्थ को ‘‘रूंढ’ संज्ञा देना, कुछ ऐसी विपरीत परिस्थितियां हैं जिनमें पिसता कथानायक मानसिक संतुलन खोने की स्थिति में आ जाता है।
अंत में पत्नी की कैंसर से कीमोथेरेपी करवाते-करवाते मृत्यु जैसी विडम्बनाएं जीवन के प्रति उदासीनता तो पैदा करती हैं मगर सब कुछ खतम होने पर, हरिद्वार में स्मृतियों की आहुति देने पर एक आजादी का बोध भी होता है हालांकि आत्महत्या जैसे विचार के बाद घारे निराशा और अवसाद के बीच जीना एक चुनौती है। कहानी लम्बी होने पर भी पाठक को पढ़ने पर मजबूर करती है हांलांकि पत्नी प्रीती की मृत्यु पर यह समाप्त हुई लगती है। कहानी में कथाकार ने आज का पूरा जीवन दर्शन, विषम परिस्थितियां, उनके बीच टूटते रिश्ते, निर्मोही संतानें , महिला उत्थान का पक्षधर होते हुए भी प्रताड़ना में जीती पत्नी, उसकी डायरी गुमाने और कम्प्यूटर तोड़ने के साथ उसके लेखकीय रूप को ‘‘घण्टे का लेखक और चूल्हे की धूड़’’ कहना आदि कई मुद्दों की ओर इशारा करता है। कथाकार ने अपना सारा जीवन दर्शन, अपनी पूरी कथा यात्रा यहां उंडेल दी है और स्वंय टूटे लैप टाॅप की तरह ख़ाली हो कहीं दूर चला गया है। इससे कम लम्बी कहानी, जो मिलती जुलती भाव भूमि लिए हुए है, ‘‘एडवांस स्टडी’’ है।
एडवांस स्टडी और रंगमंच में जवान लड़के और बूढ़े के ‘‘आप बात कर रहे हैं या पेशाब’’ जैसे संवादों के बीच सत्तर पार बूढ़ा नायक प्रेमशंकर बहत्तर की वय में मालरोड के अल्फा रेत्रां के बाहर अप्रयाशित रूप से सिगरेट का धुआं उड़ाने लगता है। कैंसर वार्ड की तरह यह भी लेखक है जिसे धेले की समझ नहीं। प्रेमशंकर की भी डायरी गुम जाती है। उसका बेटा डीएस द्विवेदी बाप को बेअकल करार सिद्ध कर और नाटक डायरेक्टर मंगला सेन के चक्कर में होने से कह कर सहन नहीं करता और मंगला सेन से उसके सम्बन्ध पर रूष्ट है। यहां भी बेटे का बहु मोना से डायवोर्स का केस चला हुआ है और बहु मोना उससे मदद की गुहार लगती है। कहानी प्रेमशंकर के दूसरी बार एडवांस स्टडी में सेलेक्ट होने और मंगला सेन के नाटक के संवादों के माध्यम से मनोवैज्ञानिक ढंग से आगे बढ़ती है। जब पे्रमशंकर एडवांस स्टडी के डायरेक्टर डाॅ0 डिसूजा के चैम्बर में बैठा होता है तो उसे बेटा फोन कर ढोंगी, सिगरेट का लालची बता सड़े घर को छोड़ कर जाने की बात करता है।
प्रेमशंकर इस बात को सुन सदमे में जा पहुंचता है। तीसरी कहानी ‘‘दादागिरी’’ में पिता-पुत्र, पति-पत्नी और दादा-पुत्र सम्बन्ध चरम पर है। यहां दादा और पुत्र में टकराव है जो पुत्र के पुत्र तक ट्रेवल करता है। स्थितियां और ज्यादा गम्भीर हैं। कैसर वार्ड की पत्नी प्रीती, जहां ज़बान से ही वार करती है, दादागिरी की मम्मी रानी पति रामनाथ पर उसीके गंडासे से वार कर देती है जिसे वह अपनी बांह पर ले कर जान बचाता है। यहां आपसी बहस व लड़ाई एसएमएस के माध्यम से चलती है क्यों राजा बेटा बगदाद में है। वहीं से एसएमएस कर वह बाप को पुश्तैनी जमीन मार्क हिलसन के नाम लीज पर देने को कहता है जिसने बेटे को सद्दाम हुस्सैन से मिलवाया और अरबों कमाने का मौका दिया। आई.ए.एस. पिता रामनाथ सोचता है कि परवरिश, शिक्षा और संस्कार में पता नहीं कहा गलती हो गई। ऐसे दबाब के क्षणों में उसकी छाती के भीतर अथाह पीड़ा होती है। वह भी कभी अपने बाप से लड़ता था मगर आज की यह जंग अधिक ख़तरनाक है। सौ बीघा जमीन का मालिक रामनाथ आत्महत्या की सोच ले, यह तो त्रासदी का चरम है। रामनाथ के बाप ने भी ट्रैैक्टर जैसी मामूली चीज़ की किश्तें न चुका पाने पर आत्महत्या कर ली थी।
कैसर वार्ड की ही तरह इस कहानी में भी राजा बेटा पिता के कदमकुआं में मौसी से और नौकरी में डाॅक्टर की पत्नी कामिनी अवैध सम्बन्धों का इल्जाम लगता हैl ‘‘तुम्हारे इस बाप ने मुझे छोड़ कर दो औरतें रखी हुई हैं।’’ रानी मम्मी कहती है और बाप के बाप को भी नहीं छोड़तीः ‘‘तेरे इस बाप ने अपने बाप से और क्या सीखा था! वह भी जिन्दगी भर इधर पैसों के लिए खत ही तो लिखता रहा। अब मर गया पर जमीन-जायदाद की हिस्सेदारी करना भूल गया….देख लेना तुम्हारा यह बाप भी अपने ही उस बाप की तरह एक रोज़ आत्महत्या कर लेगा।’’ और अंततः गंडासे से पत्नी के वार को बचाते हुए अपनी बांह पर चोट लगने से बेहोश होने के बाद होश ओन पर वह अपने को सिपाही की निगरानी में अस्पताल में पाता है जहां उस पर आत्महत्या का मुकद्दमा चलने के आसार है और उसे पागल घोषित करवाने की प्रबल सम्भावना है। राजा बेटा कहता है: ‘‘अब देर मत करो। इस आदमी के पागल होने का प्रमाण पत्र जारी करो।’’ रामनाथ को रानी मम्मी सलाह देती है कि उसके अब आराम करने के दिन हैं। उसका पूरा इंतजाम कर दिया है।
अंततः कदमकुूआं वाली जमीन राजा बेटा के आदमी मार्क हिलसन को मिल चुकी है। वहां लगे उद्योग में रानी मम्मी और राजा बेटा का तैतीस-तैतीस फीसदा हिस्सा है। वे दोनों विमान में अमेरिका उतर चुके हैं। पहली कहानी ‘‘पतलियों और मुंह के बीच’’ उस दूरी को दर्शाती है जो मुंह और कौर के बीच रह जाता है। नेता के स्वागत के लिए मांगे चंदे के बीच वे तमाम सवाल आ खड़े होते हैं जो गांव में एक लिंक रोड़ के उद्घाटन पर आ रहे नेता के लिए भोज में एक बकरे के कटने पर गोश्त की बोटियों के बंटवारे पर हो सकते हैं। चढ़तू के माध्यम से चंदे के विरूद्ध विरोध का एक चित्र चट्टान दोफाड़ करते घण की चोट में उभर कर गूंजता है। थकान मिटाने के लिए चिलम के सुट्टे से धूंए में एक विरोध का स्वर गूंजता है जो गैंडे की बीमारी के निवारण हेतु झाड़-फूंक में उलझकर रह जाता है। उधर गैंडे के ईलाज के लिए लमे पुराहित की अगुआाई में चढ़तू की पत्नी पार्वती समर्पित भाव से लगी रहती है।
मक्खू नेता के पहुंचने पर भोज के समय जब पत्तलों पर खाना परोसा जाने लगा और लमा पुूरोहित खाने से पहले मंत्र बाचने लगा, गैंडे के मरने की खबर आ गई। एक और सशक्त कहानी ‘‘भिरटी’’ अंधविश्वासों के बीच एक अदृश्य दबाब बनाती कहानी है जो दुष्टाात्मा को बालक के शरीर से बाहर निकालने के लिए किए गए श्मशान में पूजा छोड़ने जैसे आदिम उपायों पर प्रहार करती है। कहानी में भिरटी का आतंक पूरे गांव में है जहां भिरटी रात के अन्धेरे में बच्चों का ख़ून पीती है। कथा नायक के लिए विचित्र शहर एक सपना है और गांव में नींद आने पर भिरटी उसकी छाती पर बैठ जाती है। हनुमान चालीसा के पाठ से भिरटी जैसी दुष्टात्मा को भगाने में साध-चेलों का प्रभाव में अबोध लोग संलिप्त हैं। कहानी में पिता के क्रूर व्यवहार, महिलाओं की लाचारी, दादू के स्नेह का सशक्त चित्रण है।
कहानी में बाल मनोवैज्ञानिक स्थितियों का बारीकी से विश्लेषण किया गया है जैसे: ‘‘ दादी मुझे झिंझोड़ रही है। बिस्तर में दुबका मेरा शरीर पसीने से तर-ब-तर है। मुझे होश है। छाती के अंदर बहुत तेजी से कांप रहा है।‘‘ कहानी के अंत में श्मशान में ‘छाडलू’ छोड़ने का भयावह दृश्य है जो एक बालक के सामने प्रस्तुत होता है। ऐसा ही दृश्य में ‘‘अदृश्य अवतार और भटकती आत्माएं’’ में है जिसमें लापता डिंगा सिंह सरीन अस्पताल के पिछवाड़े नज़र आता है। फिर शिवदत्त उसे ढांक की ओर दौड़ते हुए देखता है जहां लोग आत्महत्या करते हैं। आखिर एक भारी बारिश के दिन डिंगा सिंह पुनः गायब हो गया बेशक उसकी आत्महत्या की ख़बर की पुष्टि भी नहीं होती। राकेश जी के इससे पहले तीन कहानी संकलन, पांच उपन्यासों के साथ तीन अनुवाद भी आ चुके हैं। इन्हें हिमाचल राज्य सरकार की ओर से चन्द्रधर शर्मा गुलेरी सम्मान, हिमाचल अकादमी का अकादमी सम्मान और प्रथम आधार सम्मान(2022) भी मिल चुके हैं।