लगभग 38 वर्षों तक हिंदी व संस्कृत भाषा पढ़ा पढ़ा कर विगत 15 वर्ष पूर्व सेवानिवृत्त हुए ‘चीरआनंद’ को साहित्य के प्रति आकर्षण भी अल्पायु में ही हो गया था। मेरी प्रथम गुरु, मेरी माता रामचरितमानस के दोहे चौपाइयां लोरी के रूप में सुनाया करती वह महाभारत के प्रसंग कथा कहानी बनाकर। माँ के सानिध्य में ही मुझे देश राष्ट्र व मानवता से प्रेम के साथ-साथ भारतीय सभ्यता संस्कृति के प्रति श्रद्धा व विश्वास के संस्कार मिलते रहे। यह भी सच है कि मेरे शिक्षकों ने मेरी भाषा शैली को दीशा दी है, किंतु यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि मैं जो कुछ भी लिखता हूं वह स्वप्रेरणा या स्वानुभूति जन्या ही है वह दूसरे की दृष्टि से कितना उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट है, इसकी चिंता मैं कभी नहीं करता। इसी जीवन शैली के चलते मेरे तीन काव्य संग्रह क्रमशः ‘त्रिवेणी;, ‘अपनों के हाथों ना खाऊंगा खिचड़ी ‘और वृक्ष हो जैसे कोई छतनार विख्यात हो चुके हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं व काव्य संकलन में भी रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी जुड़ा जुडाव है । आज भी शिक्षा के क्षेत्र में लोग मुझे अच्छे अध्यापक के रूप में जानते हैं यह सब मेरे व्यक्तित्व का आकलन करने वाले। प्रबुद्ध जनों का बड़प्पन है।