तीन पीढ़ियों के बलिदानी गुरु ,गुरु गोविंद सिंह हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए विशेष पहचान रखते हैं।क्योंकि इन्हीं के पिता नौवें गुरु तेगबहादुर,खुद दसवें गुरु गोविंद सिंह जी व इनके चारों बेटों ने अपने धर्म की खातिर बलिदान दे दिया था। परिवार के इतने बड़े बलिदान के बारे में भला कोई सोच भी सकता है?बलिदानी गुरु गोविंद सिंह का जन्म माता गुजरी व पिता गुरु तेगबहादुर के यहां 22 दिसंबर,1666 को पटना में उस समय हुआ था ,जब पिता गुरु तेगबहादुर अपने धर्म के प्रचार में असम क्षेत्र की ओर गए हुवे थे।तब इनका नाम गोविंद राव रखा गया था। पटना से बालक गोविंद राव के साथ समस्त परिवार वर्ष 1670 में पंजाब पहुंच गया और फिर आगे निकलते हुवे पहाड़ी क्षेत्र में चक्क नानकी जो कि अब आनंद पुर नाम से प्रसिद्ध है ,वर्ष 1672 में यहां पहुंच गए।यहीं पर बालक गोविंद की सारी शिक्षा दीक्षा (संस्कृत व फारसी में )योग्य विद्वानों व शिक्षकों की देख रेख में की गई।
यहीं पर इन्हें घुड़सवारी,तीरंदाजी,तलवारबाजी व युद्ध के तौर तरीकों आदि को अभ्यास के साथ सिखाया गया।साथ ही साथ धार्मिक आचार व्यवहार और आध्यात्मिक शिक्षा भी चलती रही।इसी मध्य जब गोविंद अभी 9 वर्ष के ही थे तो इनके पिता गुरु तेग बहादुर जी के पास कुछ कश्मीरी पंडित मुगलों के विरुद्ध शिकायत ले कर पहुंच गए,जो कि उनको धर्म परिवर्तन को प्रेरित कर रहे थे।बालक गोविंद उस समय वहीं अपने पिता तेगबहादुर के पास ही था और उसने पिता से कश्मीरी पंडितों की सहायता करने को कह दिया। गुरु तेगबहादुर ने औरंगजेब से मिल कर बात करने का आश्वाशन देकर पंडितों को वापिस भेज दिया।उधर औरंगजेब को इसकी सारी जानकारी पहुंच गई और गुरु तेग बहादुर जी को दिल्ली पहुंचने से पूर्व ही गिरफ्तार कर लिया गया ।
फिर उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए के कहा गया जिस पर उन्होंने मरना कबूल कर लिया लेकिन अपने धर्म पर अडिग रहे।औरंगजेब ने 11नवंबर 1975 को आदेश दे कर गुरु तेग बहादुर जी का सिर धड़ से अलग करवा दिया।गुरु तेग बहादुर जी के इस बलिदान के पश्चात उनके बेटे गोबिंद सिंह को 29 मार्च ,1676 को 10 वें गुरु के रूप में गद्दी पर बैठा दिया और उनकी शिक्षा दीक्षा भी साथ चलती रही।गुरु गोविंद सिंह जी के तीन विवाह हुवे थे।पहला विवाह उनकी 10 वर्ष की उम्र में ,आनंद पुर के निकट के गांव बसंतपुर की जीतो नाम की लड़की से हुआ था,जिससे उनके तीन बेटे, जिनका नाम जुझार सिंह,जोरावर सिंह तथा फतेह सिंह था।दूसरी शादी 4अप्रैल ,1684 को 17 वर्ष की आयु में ,आनंद पुर की सुंदरी नामक कन्या से हुई थी।जिससे केवल एक बेटा अजीत सिंह पैदा हुआ था।इसी तरह से तीसरी शादी 33 वर्ष की आयु में देवन नामक लड़की से 15 अप्रैल, 1700 में संपन्न हुई थी और इनसे गुरु जी की कोई औलाद नहीं थी। गुरु गोविंद सिंह हमेशा प्रेम,सदाचार,भाईचारे का संदेश मधुर वाणी के साथ देते रहते थे,फलस्वरूप उनके पास सभी तरह के लोग बिना किसी भेद भाव के हमेशा चले ही रहते थे।
गुरु जी अक्सर कहा करते थे, ” भैं काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन।” अर्थात न तो तुम किसी से डरो और न ही किसी को डराओ। हमेश धर्म और सत्य के मार्ग पर चलो।गुरु जी को अनेकों नामों से जाना जाता था ; अर्थात कालगी वाले,दशमेश, बाज़ाँ वाले आदि आदि। वर्ष 1685 में बिलासपुर के राजा भीम चंद से कुछ मत भेद हो जाने व सिरमौर के शासक मत प्रकाश के आग्रह पर वह पहले टोका और फिर पौंटा पहुंच गए,यहीं पर गुरु जी द्वारा एक किले का निर्माण भी करवाया गया,लेकिन यहां गुरु जी केवल तीन साल ही रहे । वर्ष 1687 में पहाड़ी राजाओं के सहयोग से मुगल अलिफ खान को बुरी तरह से पछाड़ने में सफल रहे।फिर 1688 में बिलासपुर की रानी चंपा के बार बार कहने पर वापिस आनंद पुर आ गए।यहीं पर वर्ष 1699 में वैशाखी के अवसर पर खालसा पंथ की स्थापना करते हुवे ,पांच प्यारों का चयन करके उन्हें अमृत छकाया गया तथा पांच कक्कों (केश,कंघा,कड़ा,किरपाण व कच्चछे)के महत्व बताए गए।
उधर सरहंद के नवाब वजीर खान ने 27 दिसंबर ,1704 को गुरु गोविंद सिंह के दो बेटों जोरावर सिंह व फतेह सिंह को जिंदा दीवार में चिनवा दिया तो इसके पश्चात 8 मई,1705 को मुक्तसर के युद्ध में मुगलों को बुरी तरह से परास्त करके गुरु जी ने बदला ले लिया। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात ,गुरु गोविंद सिंह जी के प्रयासों से बहादुर शाह को गद्दी पर बैठाया गया,बहादुर शाह के साथ गुरु जी की अच्छी मित्रता थी ,जिससे सरहंद का नवाब(वजीर खान) गुरु जी व बहादुर शाह की निकटता से घबरा गया और फिर उसने गुरु जी को खत्म करने के लिए दो पठानों को नियुक्त कर दिया।इसी के चलते 7 अक्टूबर,1708 को नादेड साहिब में गुरु जी इस संसार को छोड़ कर चले गए।अंतिम समय उन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब को शीश झुका कर प्रणाम करते हुवे व आगे का गुरु ग्रन्थ साहिब सबके लिए ,कह कर दिव्य ज्योति में लीन हो गए।
इसके पश्चात गुरु जी के शिष्य बंदासिंह बहादुर द्वारा सरहंद के मुगल दुश्मनों पर हमला बोल कर उनके छक्के छुड़ा दिए। गुरु गोविंद सिंह सिखों के प्रथम गुरु ,गुरु नानक की तरह ही,गहर गंभीर,दानी ज्ञानी,फकीर,महान चिंतक,धर्म रक्षक और सरल सहज विचारक भी थे।एक अच्छे कवि व साहित्यकार भी थे,उनकी लिखित कृतियों में शामिल हैं: 1.वचित्र नाटक,2.जप साहिब3.अकाल स्तुति,4. चंडी चरित्र,5. चंडी दी वार,6.ज्ञान पर बोध,7.चौबीस अवतार,8.जफरनामा,9.खालसा महिमा तथा 10. अथपखयां चरित्र लि ख्याते आदि। गुरु गोविंद सिंह जी का यह समस्त साहित्य , ब्रज भाषा,फारसी व संस्कृत में लिखा गया था और गुरु जी कई भाषाएं जानते थे।तभी तो उनके दरबार में कहते हैं कि, 52 विद्वानों को संरक्षण मिला हुआ था।गुरु जी मुगलों के खिलाफ सभी पहाड़ी राजाओं को एक सूत्र में बंधने के लिए मण्डी रियासत के रिवालसर नामक तीर्थ स्थल भी पधारे थे और पहाड़ी राजाओं की बैठक का आयोजन भी किया था।उनकी याद में गुरुकोठा व गुरु का लाहौर गांव तथा रिवालसर व मण्डी गुरुद्वारा गुरु जी की यादें आज भी संजोए हैं।