जी हां, रत्नाकर नाम से जाना जाने वाला यही व्यक्ति प्रसिद्ध ऋषि व महा काव्य रामायण का रचनाकार बाल्मिकी ही है। यह सब कैसे हुआ, यह समस्त जानकारी हमें अपने पौराणिक साहित्य के अध्ययन मिल जाती है। पौराणिक कथाओं में ही बताया गया है कि त्रेता युग में अश्विन मास की पूर्णिमा वाले दिन गंगा नदी के तट पर माता चर्षणी व पिता प्रचेत (वरुण) के यहां रत्नाकर नामक बालक का जन्म हुआ था। यही बालक रत्नाकर कुछ समय पश्चात अचानक जंगल में खो जाता है और बहुत ढूंढने पर भी अपने माता पिता को नहीं मिल पाता। उधर जंगल में शिकार पर निकले एक शिकारी (भील) जब रोते हुवे रत्नाकर को देखता है तो वह उसके माता पिता की इधर उधर खोजबीन करता है, लेकिन जब उसके मां बाप का कहीं भी पता नहीं चलता तो वह बच्चे को अपने घर ले आता है और अपने बच्चे की तरह उसका लालन पालन करने लगता है क्योंकि उसकी अपनी कोई संतान नहीं थी। जब रत्नाकर कुछ बड़ा हो गया तो वह भी उस शिकारी (पिता) के साथ शिकार करने जाने लगा। क्योंकि वह भी तो घर का बेटा बन गया था और इसलिए शीघ्र ही उसकी शादी भी कर दी गई, बाल बच्चे भी हो गए । शिकारी का परिवार इतना संपन्न तो था नहीं, इस लिए रोजी रोटी के जुगाड़ के लिए रत्नाकर को आगे आना पड़ा । कभी वह जंगल से शिकार ले आता और कभी शिकार न मिलता तो किसी राहगीर की ही लूट पाट कर लेता।यही लूट-पाट, चोरी डाका बाद में उसकी दिनचर्या ही बन गई। एक दिन उधर से कहीं मुनि नारद जी जा रहे थे कि रत्नाकर ने उन्हें भी पकड़ लिया और उनसे भी लूट मार करने लगा, तो नारद मुनि ने कहा भई मेरे पास तो कुछ नहीं है, केवल इस वाद्य यंत्र (वीणा) के सिवा । अपने वाद्य यंत्र तो दिखाते हुए नारद ने रत्नाकर से कहा और फिर पूछा कि तुम ऐसा लूटने का घटिया कार्य क्यों करते हो… इसके लिए तुम पाप की भागी बन जाओ गे।तो रत्नाकर ने कहा कि मैं तो यह अपने परिवार के पेट के लिए करता हूं।
ठीक है तुम परिवार के लिए करते हो लेकिन कर्म तुम करते हो तो इसका भुगतान भी तुम्हें ही करना पड़ेगा। पाप तुम्हें ही लगेगा। नारद मुनि ने उसे समझाते हुवे कहा दिया। इस पर रत्नाकर ने नारद मुनी को एक पेड़ से बांध दिया और खुद भागते हुवे अपने घर पहुंच कर परिवार वालों से पूछने लगा कि क्या वे सब भी उसके द्वारा किए जाने वाले कर्म के भागीदार रहे गे तो सब ने इंकार करते हुवे उसे ही बुरे कर्मों के लिए दोषी ठराया । इस तरह रत्नाकर को समझ आ गया और फिर वह सीधा नारद मुनि जी के पास पहुंच कर अपने किए पर पछताते हुवे क्षमा याचना करने लगा तथा अपने किए पापों से छुटकारा पाने के लिए उपाय पूछने लगा तो तब नारद मुनि ने उसे राम नाम का जाप करने को कहा दिया और नारद मुनि अपने गंतव्य की ओर निकल गए।
रत्नाकर नारद मुनि के कहेआनुसार राम नाम के जप के लिए बैठ गया और राम राम के जाप में ऐसा लीन हो गया कि उसको अपनी कोई सुधबुध भी नहीं रही… उसके चारो ओर मिट्टी धूल जमती गई और वहां एक चींटियों की बांबी सी बन गई । जब नारद मुनि जी वापिस जा रहे थे तो उन्होंने उस बांबी को देख लिया और समझ भी गए। उन्होंने बांबी को कान लगा कर सुना तो मरा मरा की आवाज आ रही थी क्योंकि राम राम इतनी जल्दी जल्दी कहे जा रहा था कि मरा मरा ही सुनाई दे रहा था। मुनी बड़े खुश हुवे और उसे (रत्नाकर को) भी उठा दिया तथा उसे संबोधित करते हुवे बाल्मिकी बाल्मिकी कहने लगे, तभी से रत्नाकर ऋषि बाल्मिकी के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
एक दिन ऋषि बाल्मिकी स्नान करने को गंगा तट को जा रहे थे कि उन्हें नदी के समीप एक सुंदर सारस को जोड़ा दिखाई दिया जो की आपस में प्रेमलीला करते बहुत ही सुन्दर प्रतीत हो रहा था, तभी एक तीर आकार नर सारस के शरीर को बेंद देता है और वह नर सारस वहीं ढेर हो जाता है।मादा सारस बेचारी दुख में विलाप करने लगती है। बाल्मिकी ने तीर आने वाली दिशा की ओर देखा तो उन्हें तीर कमान लिए एक शिकारी उधर दिखा, तभी दुख और क्रोध की अग्नि में जलते हुए ऋषि ने शिकारी को शाप देते हुवे कह डाला की वह भी विरह में इसी तरह तड़प तड़प कर मरेगा। यह शब्द ऋषि ने संस्कृत के श्लोक में व्यक्त किए थे जो कि उनकी संस्कृत की प्रथम कृति मानी जाती है।
बाद में ऋषि सोचने लगे कि यह मैंने आवेश में क्या कह डाला… तभी वहीं पर नारद मुनि प्रकट हो हो जाते हैं और ऋषि को संतावना देते हुवे उन्हें भगवान राम जी का सारा वृतांत सुना कर बाल्मिकी को रामायण की रचना करने को कह देते हैं। ऋषि बाल्मिकी भगवान राम से वनवास के समय मिल चुके थे। बाद में वनवास की समाप्ति के पश्चात जब देवी सीता को भगवान राम जी ने त्यागा था तो देवी सीता बाल्मिकी के आश्रम में रही थीं और लव कुश ऋषि के आश्रम में ही पैदा हुवे थे, जिनको सारी शिक्षा दीक्षा बाल्मिकी ने ही अपने आश्रम में दी थी।इसी सब के साथ साथ ऋषि बाल्मिकी ने संस्कृत के महाकाव्य रामायण की रचना 24,000 श्लोकों के साथ करके उसमे सूर्य, चंद्रमा व सभी नक्षत्रों का विस्तार से वर्णन भी किया था। इससे पता चलता है कि ऋषि बाल्मिकी अपने भाई भृगु की तरह वेदों, उपनिषदों, संस्कृत भाषा व वेदांत शिक्षा के साथ ही साथ महान कवि व जाने माने संत ऋषि थे।उन्होंने ने महा काव्य रामायण की रचना सात खंडों में करके भक्ति, धर्म, नीति और कर्तव्य की पूरी पूरी व्याख्या बड़े ही सुंदर ढंग से करके सभी को रहा दिखा दी थी। इस बार उनकी जयंती 17 अक्टूबर को मनाई जा रही है। बाल्मिकी जयंती के अवसर पर शोभा यात्रा व नगर कीर्तन में उनकी मूर्तियों, चित्रों व झांकियों के माध्यम से बहुत कुछ दिखाया जाता है।मंदिरों व बाजारों की लाइटों के साथ सजावट की जाती है और रामायण पाठ का आयोजन किया जाता है।