वैसे तो भारतवर्ष में कई मेले एवं त्यौहार मनाए जाते हैं लेकिन हिमाचल प्रदेश के जिला कुल्लू का अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा अपने आप में एक विशेष महत्व रखता है। कुल्लू दशहरे को सिर्फ हिमाचल प्रदेश या भारतवर्ष ही नहीं अपितु विश्व के कई देशों में जाना जाता है। अपनी अलौकिक सांस्कृतिक परंपरा को संजोए रखने में अंतर्राष्ट्रीय कुल्लू दशहरा मेला पूर्णतः सफल हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय कुल्लू दशहरे की अपने आप में एक अनोखी परंपरा है। पूरे भारतवर्ष में जहां विजयदशमी वाले दिन रावण दहन होता है वहीं इसके ठीक विपरीत विजयदशमी के दिन से ही अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरे की शुरुआत होती है। हिमाचल प्रदेश के जिला कुल्लू में हर साल लाखों पर्यटक आते हैं।
कुल्लू घाटी की खूबसूरती इसके मंदिर, सेब के बागवान, देवदार के घने जंगल, चीड़ के जंगल एवं अन्य रमणीक स्थल है। कुल्लू दशहरा महोत्सव ऐसे तो आधिकारिक रूप से 7 दिनों तक चलता है लेकिन दिवाली तक यहां खूब चहल पहल रहती है। यहां के लोग अंतर्राष्ट्रीय कुल्लू दशहरा में खूब खरीदारी करते हैं। यहां की खास बात यह है कि यहां दशहरे के दिन भी रावण की चर्चा नहीं होती है बल्कि नारायण की चर्चा होती है। अयोध्या से ले गए भगवान श्री रघुनाथ की पूजा अर्चना के साथ अन्य देवी देवताओं की उपस्थिति में भव्य जलेब (शोभायात्रा) निकाली जाती है। भगवान रघुनाथ के रथ को खींचने के लिए हर समुदाय का व्यक्ति बहुत आतुर रहता है। कुल्लू दशहरा लोक संस्कृति का भी अनूठा संगम है।
भारतवर्ष में पूरे हर्ष और उल्लास के साथ दशहरा पर्व मनाया जाता है। यह पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में भी मनाया जाता है। भगवान श्री राम के जीवन पर आधारित राम नाटक एवं रामलीला का आयोजन भी भारतवर्ष के कई शहरों में किया जाता है। राम नाटक मंचन एवं रामलीला को आज भी लोग बड़े चाव से देखने जाते हैं। विजयदशमी के दिन जहां एक और रावण, कुंभकर्ण और मेघनाथ के पुतले जलाए जाते हैं वहीं दूसरी ओर दहन यह भी दर्शाता है कि बुराई अधिक दिनों तक नहीं चल पाती है। कुल्लू जिले में मनाया जाने वाला अंतरराष्ट्रीय पर्व दशहरा में सैकड़ो की संख्या में देवी देवता इकट्ठे होते हैं और ढोल तथा नगाड़ों की गूंज से सारा वातावरण भक्तिमय में हो जाता है। ढोल नगाड़ों एवं नरसिंघो की सुरमई धुनों से लोग अपने-अपने देवी देवताओं को प्रसन्न करते हैं एवं उनकी पूजा अर्चना करते हैं।
आखिरकार यह कुल्लू दशहरा शुरू कैसे हुआ ? अगर स्थानीय लोगों की बात माने तो इसके पीछे एक बहुत ही रोचक एवं जिज्ञासु कथा है, कहा जाता है कि कुल्लू में राजा जगत सिंह का शासन सन 1637 से लेकर 1662 ईo तक हुआ करता था। उसे दौरान कल्लू रियासत की राजधानी नगर हुआ करती थी। कुल्लू रियासत के अधीन एक बहुत ही रमणीक स्थल मणिकर्ण घाटी में एक गांव टिप्परी पड़ता है, जहां पर एक गरीब ब्राह्मण दुर्गादत्त रहा करता था। उस गांव के कुछ लोगों ने राजा के पास या झूठी सूचना पहुंचा दी कि दुर्गादास ब्राह्मण के पास डेढ़ किलो सुच्चे मोती हैं। उन्होंने यह भी अफवाह फैला दी कि यह सुच्चे मोती राजमहल में राजा के पास होने चाहिए थे। जब राजा के पास या खबर पहुंची तो उन्होंने तुरंत अपने दरबारी को आदेश दे दिया कि वह सुच्चे मोती हमारे पास हाजिर किए जाएं। जब उसे गरीब ब्राह्मण दुर्गा दत्त को इस बात का पता चला कि राजा के लोग उसे पकड़ने आ रहे हैं और उसके पास तो सुच्चे मोती है ही नहीं तो उसने डर के मारे परिवार के साथ आत्महत्या कर ली। कुछ स्थानीय लोगों का कहना है कि जब राजा जगत सिंह को इस बात का पता चला कि ब्राह्मण दुर्गा दत्त ने आत्महत्या कर ली है तो उसको बहुत दुख हुआ।
कुछ का तो यहां तक कहना है कि इससे राजा को कुष्ठ रोग हो गया। कहते हैं कि राजा जब भी खाना खाने लगता था तब उसको अपने खाने में कई कीड़े मकोड़े एवं जीव जंतु दिखाई देने शुरू हो गए थे। इस बात से राजा बहुत ही चिंता में रहने लगा था। एक दिन नगर में कोई ऋषि आए तथा उन्होंने राजा को बताया कि अगर आप अयोध्या से भगवान श्री रघुनाथ जी की मूर्ति लाकर यहां स्थापित करेंगे तो आपका कुष्ठ रोग दूर हो जाएगा। राजा जगत सिंह ने ऐसे ही किया और भगवान श्री रघुनाथ जी की मूर्ति अयोध्या से लाकर कुल्लू में स्थापित कर दी और राजा को कुष्ठ रोग से मुक्ति मिल गई। यहीं से ही कुल्लू दशहरे की शुरुआत हुई। राजा नहीं इसी दिन कुल्लू दशहरा मनाने का फरमान जारी किया था। क्योंकि कुल्लू घाटी में देवी देवताओं को बहुत माना जाता है और सारे देवी देवता अपने श्रद्धालुओं के साथ रथों पर सवार होकर शिरकत करते हैं। उस समय भी राजा जगत सिंह ने कुल्लू घाटी के देवी देवताओं तथा अन्य साथ लगती रियासतों के स्थानीय देवी देवताओं को निमंत्रण भिजवाया कि वे इस मेले में शामिल हो। वहीं से ही यह परंपरा आज तक भी चली आ रही है और पीढ़ी दर पीढ़ी इसको आगे बढ़ाया जा रहा है।
कुल्लू दशहरा आज के समय में एक अंतरराष्ट्रीय छाप छोड़ने में बिल्कुल सफल हुआ है और यहां पर प्रदेश ही नहीं अपितु देश एवं विदेश से भी सांस्कृतिक दल अपनी अपनी संस्कृति का प्रदर्शन करने आते हैं। पहले इस मेले ने बहुत व्यापारिक रूप तथा पशु मेले का रूप लिया हुआ था। एक रोचक बात यह भी थी कि कुल्लू दशहरे के अंतिम दिन सात भैंसे(पशुओं) की बलि देने की प्रथा मेले के शुरू होने से ही चली आई थी। परंतु जब से पशु बलि प्रथा भारतवर्ष में बंद की गई है तो यहां हिमाचल प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने भी कुल्लू दशहरा में दी जाने वाली पशुओं की बलि पर प्रतिबंध लगा दिया था। उसके बाद से आज तक यहां किसी भी प्रकार के किसी भी पशु की बलि नहीं दी जाती है और उसकी जगह पर एक तलवार रख दी जाती है जिसकी पूजा की जाती है।
कल्लू का अंतरराष्ट्रीय दशहरा देखने अब बाहरी राज्यों से ही नहीं परंतु अन्य देश-विदेश से भी बहुत से लोग आते हैं। बाहरी लोग यहां की अनूठी सांस्कृतिक परंपरा से आश्चर्यचकित रह जाते हैं और यह सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि यहां के लोगों ने आज भी अपनी सांस्कृतिक परंपरा को इतने अच्छे तरीके संजोया हुआ है जो कि अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है। विश्व मानचित्र पटल पर अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा अपनी विशेष महता रखता है। हर वर्ष 200 से अधिक स्थानीय देवी देवता मेले में शिरकत करते हैं। बहुत ही रोचक बात है कि सभी देवी देवता आपस में दशहरे में जब मिलन करते हैं तो वह नजारा दिल को छू लेने वाला होता है। कोई भी श्रद्धालु जब देवी देवताओं के आगे नतमस्तक होता है तो देवी देवता जो की रथ पर सवार होते हैं वह श्रद्धालुओं को अपना पूरा आशीर्वाद देते हैं। कहा जाता है कि वह देवी देवता अपने आप ही आशीर्वाद देने के लिए झुक जाते हैं। सांस्कृतिक परंपरा एवं वास्तु शिल्प कला का अनूठा संगम अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा आज विश्व पटल पर एक अमित छाप छोड़ चुका है।