उमा ठाकुर, आयुष्मान साहित्य सदन, पंथाघाटी, शिमला
चूल्हे की तपन में,
रिश्तों का ताना-बाना बुनती,
पहाड़ की औरत,
घुप्प अंधेरा खेत खलियान,
आसमान की चादर ओढ़े,
देवड़ी लांघ, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पे गुजर,
चूल्हे से घासनी का सफर तय करती,
बिना धूप छाँव की फिक्र के ।।
नहीं जानती पहाड़ के उस पार का जीवन,
जानती है, बस इतना कि उसकी गाय बाट जोह रही है ।।
बतियाती है, वो रोज़,
कुत्ते-बिल्ली और खूँटे से बंधी गाय से ।।
जकड़ी है वो भी खूँटे सी, समाज के बंधनों में
चूल्हे-चौके से चार दिन की छुट्टी,
ले जाती है उसे पहाड़ के और करीब ॥
इस दौरान, दोनों खूब बतियाते हैं
लामण, झूरी, गंगी खूब गाते हैं ।।
सब देखा है पहाड़ ने,
वो बच्चपन, वो आँगन की चिरैया
वो सतरंगी सपने बुनते–बुनते,
पीठ पर किल्टा लिए, पहाड़ को लांघना
उससे भी परे, सखी किंकरी देवी का बेखौफ़
उसे बचाने के लिए, खनन माफिया से भिड़ जाना ।।
सुरमी, नरजी, सती, चैरवी न जाने कितनी ही औरतों के
सपनों को जलते देखा है पहाड़ ने मौन रहकर ।।
सुनी है उसने अभी-अभी खूनी पंजों में जकड़ी
मासूम गुड़िया की पुकार
साथ ही गूंज रही है चीखें, मानवीय वेदनाओं की
जो चढ़ रही है भेंट विकास के नाम पर ।।
सुर्खियां बटोर रहे हैं, छलनी, लहू-लुहान तन से और मन से भी,
दर्द एक सा सदियों से और शायद सदियों तक रहेगा एक सा ॥
मगर है प्रश्न बाक़ी कि क्या पहाड़ और औरत के वजूद का,
बस मौन है हल ?