विक्रम संवत् 1827 (सन् 1770) के आस पास का है। नवरात्रि में माँ दुर्गा के नौ रूपों की पुजा की जाती है। मण्डी शैली की इस ‘देवी श्रंखला’ के भी नौ अलग-अलग चित्र हैं।इस चित्र का आधार पिले रंग से भरा गया है और चारों किनारे लाल रंग से, पहाड़ी चित्रकला में प्रयोग होने वाले रंग पुर्णत: प्राकृतिक होते थे। चित्रकार इन रंगों को कई दिनों की मेहनत के बाद तैयार करते थे।
उनमें विशेष प्रकार का गोंद भी मिलाया जाता था। जैसे नीम का गोंद। सेंकड़ों वर्षो बाद भी इन चित्रों की चमक बनी हुई है। इस चित्र में माँ दुर्गा ने। अन्य अस्त्र-शस्त्रों के साथ अपने एक हाथ में ‘हल’ भी धारण किया हुआ है। देवी-देवता स्वयं शिव भी माँ का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए पंक्ति में खड़े है। भारत में प्राचीन काल से नारी शक्ति का प्रतीक रही है। श्रृंखला के अन्य चित्रों में माँ दुर्गा असुरों-रक्षसों से श्रृषि-मुनियों की रक्षा करती दिखाई गई है। हवन यज्ञों को अपवित्र करने के लिए दुष्ट राक्षस प्रयास करते रहते थे।
एक चित्र में माता दुर्गा और राक्षस आकाश में उड़ कर युद्ध लड़ रहें हैं। अन्य चित्र में माता द्वारा राक्षस का वध करते दर्शाया गया है। राक्षस वध के उपरांत वाद्ययंत्रों से नर-नारी यक्ष गंधर्व देवी-देवता प्रसन्नता व्यक्त करते दिखाए गए हैं। पहाड़ी चित्रकला के चित्रकार सर्वप्रथम वेद, पुराण, उपनिषद, शास्त्रों इत्यादि को पहले पड़ते व उस समय के महापुरुषों ,साधु-संतो से ज्ञान प्राप्त करते और उसी आधार पर चित्र बनाते थे। पहाड़ी चित्रकला की मण्डी शैली अन्य चित्र शैलियों से भिन्न है।
वर्तमान में यह चित्र अधिकतर विदेशी संग्रहालयों और निजि संग्रहों की शोभा बड़ा रहें हैं। विदेशो से हिमाचल प्रदेश की इस धरोहर को वापिस लाने के लिए प्रयास करने चाहिए। पहाड़ी चित्रकला की कांगड़ा चित्र शैली के उपरांत पिछले वर्ष बसोहली चित्र शैली (जम्मू )को भौगोलिक संकेत (GI) टैग प्राप्त हुआ। मण्डी चित्र शैली को भी भौगोलिक संकेत प्राप्त हो इस दिशा में हमें कार्य करना चाहिए।