कल्पना गांगटा, शिमला
आकाश सा असीम अनन्त व्यक्तित्व है पिता,
भीतर-भीतर टूटता रहता, आभास टूटन का नहीं होने देता ।
त्याग व ममता की मूर्त कहलाती माता,
कम नहीं बलिदान, जो देता है पिता ।
परिवार की मजबूत ढाल बनकर रक्षा हमारी करता,
बाहरी चोटों से, तूफान के थपेड़ों से, धूप की तपिश से,
हर पल, हर हाल में, हमें बचाता है पिता ।
चट्टान बनकर हमारे कष्टों को झेलता,
कम साधनों में अपना निर्वाह करके,
अंबार साधनों को संतान के लिए जुटाता ।
सूरज जैसी तपिश लिए, न डांटता हमें,
तो न रहती रौशनी की आस, हर तरफ अंधेरा छा जाता ।
आकाश सा असीम सीना लिए, समुद्र सा विशाल हिरद्य लिए,
राज कितने दबाए रखता,
शांत, धीर, गंभीर पल-पल हमारे सपनों के लिए जीता,
किसी भी हाल में हमें कमजोर नहीं पड़ने देता,
धन्य है वो पिता पग-पग जो मार्गदर्शन हमारा करता ।
बेटे की हो शादी या हो बेटी की विदाई,
सारी रस्में सारे फर्ज निभाता,
लुटा देता है वह सब सँजोई थी जो पाई-पाई,
नहीं देखता वह अपना पुराना कुर्ता या अपना फटा जूता ।
खून पसीना एक कर जरूरतें पूरी सबकी करता,
परिवार के लिए सौ बार जीता, सौ बार मरता,
सिसकियाँ तक नहीं कभी निकलती,
नहीं जमाने को आँसू दिखाता ।
एकान्त में रोकर मन हल्का करता,
हमारी कामयाबी की सीढ़ी बन जाता पिता,
ताउम्र जिम्मेवारियों का बोझ ढोते–ढोते ।
Father is a back bone of a family who runs it without any pains
Our present is the outcome of our parents sacrifices. Each word of this poem is true.