भारतीय विदेश सेवा (IFS) के 2024 बैच के प्रशिक्षु अधिकारियों ने आज राष्ट्रपति भवन में भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु से शिष्टाचार मुलाकात की। इस अवसर पर राष्ट्रपति ने युवा राजनयिकों को विदेश सेवा में शामिल होने की बधाई देते हुए उन्हें आधुनिक वैश्विक चुनौतियों के संदर्भ में कूटनीति की बदलती भूमिका के बारे में मार्गदर्शन दिया।
राष्ट्रपति मुर्मु ने अधिकारियों से कहा कि भारतीय कूटनीति की आत्मा उन सभ्यतागत मूल्यों में निहित है, जो देश को विशिष्ट बनाते हैं—जैसे शांति, बहुलवाद, संवाद और अहिंसा। उन्होंने कहा कि इन मूल्यों को अपनाकर ही अधिकारी विदेशों में भारत की छवि को प्रभावी रूप से प्रस्तुत कर सकते हैं। साथ ही, उन्होंने विभिन्न संस्कृतियों और दृष्टिकोणों के प्रति खुला दृष्टिकोण रखने पर बल दिया।
राष्ट्रपति ने वैश्विक परिदृश्य में तेजी से हो रहे बदलावों जैसे भू-राजनीतिक अस्थिरता, डिजिटल क्रांति, जलवायु परिवर्तन और बहुपक्षवाद की चुनौतियों का उल्लेख करते हुए कहा कि इनका प्रभाव राजनयिक कार्यों पर सीधा पड़ रहा है। उन्होंने प्रशिक्षु अधिकारियों से अपेक्षा की कि वे चपलता और अनुकूलनशीलता के साथ भारत की नीतियों का प्रतिनिधित्व करें।
राष्ट्रपति मुर्मु ने बताया कि भारत आज न केवल विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, बल्कि एक उभरती हुई वैश्विक आर्थिक शक्ति भी है। उन्होंने कहा कि सीमा-पार आतंकवाद, वैश्विक उत्तर-दक्षिण विषमता और जलवायु संकट जैसी समस्याओं के समाधान में भारत की भूमिका निर्णायक है। ऐसे में, भारतीय राजनयिकों को दुनिया भारत के पहले चेहरे के रूप में देखती है।
राष्ट्रपति ने सांस्कृतिक कूटनीति की बढ़ती प्रासंगिकता को रेखांकित करते हुए कहा कि भारत की विविध सांस्कृतिक धरोहर — जैसे योग, आयुर्वेद, श्रीअन्न (मिलेट्स), संगीत, कलाएं और भाषाई-आध्यात्मिक परंपराएं — वैश्विक मंच पर भारत की पहचान को और सुदृढ़ कर सकती हैं। उन्होंने कहा कि “हृदय और आत्मा से जुड़ने वाले संबंध ही सबसे स्थायी होते हैं।”
राष्ट्रपति मुर्मु ने कहा कि भारत के कूटनीतिक प्रयास केवल वैश्विक मंच पर उपस्थिति तक सीमित नहीं होने चाहिए, बल्कि उन्हें देश की घरेलू आवश्यकताओं और “विकसित भारत 2047″ के दृष्टिकोण से भी जोड़ा जाना चाहिए। उन्होंने अधिकारियों से आग्रह किया कि वे स्वयं को केवल नीतिगत प्रतिनिधि न समझें, बल्कि भारत की आत्मा के दूत बनें।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु का यह संवाद केवल एक औपचारिक मुलाकात नहीं, बल्कि आने वाले वर्षों में भारत की कूटनीतिक दिशा को आकार देने वाले भविष्य के अधिकारियों के लिए एक स्पष्ट संदेश था — कि कूटनीति अब केवल देशहित में नहीं, बल्कि देशनिर्माण का भी माध्यम बन चुकी है।