दीप्ति सारस्वत प्रतिमा, प्रवक्ता हिंदी, रा .व. मा. विद्यालय, बसंतपुर, शिमला
स्वाति और नीलेश पहाड़ घूमने बर्फ़ देखने हनीमून मनाने आये हैं।
जिस होटल में वे दोनों ठहरे उसका मैनेजर स्वाति का बचपन का सहपाठी निकला ज़ाहिर है उनमें पुरानी पहचान के नाते बचपन का सा ख़ूब हंसी ठट्ठा हुआ ख़ूब यादें ताज़ा की गईं , बातों – बातों में मैनेजर ने स्वाति के कंधे पर हाथ रख दिया…
कल रात नीलेश ने इसी बात पे इतने ज़ोर से स्वाति का कान उमेठा कि कान की नाज़ुक लौ पर खून उभर आया। वह हकबका कर , तिलमिला कर रह गई। रुलाई उसने पूरी रात ख़ूब घोट कर रोके रखी ।
सारी उम्र एक काली अंधेरी रात बन कर रह जाये और घर का मौसम हमेशा बरसने के पहले के दबाव और घुटन से लबरेज़ नम सा बना रहे इस बात की कल्पना मात्र स्वाति के अंदर रह – रह कर सिहरन पैदा कर रही थी , इसी सिहरन में स्वाति की पलक से चुपचाप आंसू की एक बूंद गालों पर ढुलकी और मन के अंधरे कोने में उजास लिए मोती सा संकल्प पनपा… चारों ओर अंधेरे के दबाव और मौसम की घुटन में रिश्ते वाली अंगूठी का शिकंजा उसकी नाज़ुक गोरी अनामिका पर अधिक और अधिक कसता चला गया…
उंगली पर अंगूठी के
बढ़ते शिकंजे से
निरंतर बढ़ती
बेचैनी की हद में
उसने पहली बार
खिड़की से
गिरते देखी बर्फ़
गुमसुम भारी मौसम में
रात भर गिरती
रही थी बर्फ़
सुबह – सुबह
सूरज की
पहली किरण के साथ
उसने पाया कि
ताज़ी गिरी बर्फ़
में धंसती है
हर चीज़ बेआवाज़
चुपचाप
इसी बर्फ में
चलते – चलते
चुपके से
रात भर के रोके
आंसुओं के साथ
गिरा दी उसने
जानबूझ कर
अनामिका से
ज़बरन खींच कर के
अपनी रिश्ते वाली अंगूठी
बर्फ़ पिघलने पर
सौभाग्यवान
जिस किसी को भी
मिलेगी यह क्रूर शिकंजा
बन चुकी अँगूठी
उसके लिए
होगी वह बस
एक कीमती
धातु की अंगूठी
जिस पर से
उतर चुकी होगी
रिश्तों की परत