डॉ कमल के प्यासा
इस लेख में दी गई टिप्पणियां और चिंताएँ डॉ प्यासा द्वारा हैं और ये इनकी अंदरूनी दृष्टि हैं, जिन्होंने पाया कि भाषा एवं संस्कृति विभाग, हिमाचल प्रदेश, द्वारा छापी गई त्रैमासिक शोध पत्रिका “सोमसी” में समान लेख हैं । अकादमी को बदनाम होने से बचाने की आवशयकता; जो लोग कहानियाँ चुरा रहे हैं उन्हें जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए और कार्रवाई की जानी चाहिए । डॉ प्यासा का कहना है कि मूल कहानी किसने और कब लिखी है, कार्रवाई की जानी चाहिए ।
अभी दो चार दिन पहले ही हिमाचल कला संस्कृति व भाषा अकादमी की त्रैमासिक शोध पत्रिका ‘सोमसी’ का अंक 187 (जनवरी-मार्च 2023) पढ़ रहा था । इसमें लेखक हेमेद्र बाली का आलेख ‘कुमार सेन का इतिहास एन्व संस्कृति’ भी पढ़ा, जिससे कुमारसेन की ऐतिहासिक व संस्कृतिक पक्ष की बहुत सी जानकारियां प्राप्त हुईं इसके लिए लेखक (जो भी है) को हार्दिक बधाई । आगे इसी पत्रिका के पृष्ठ 26 – 30 में एक अन्य आलेख जिसका शीर्षक ‘देवता कोटेश्वर जी महाराज’ व लेखक हितेंद्र शर्मा हैं, को पढ़ा और पढ़ते-पढ़ते सोचने लगा कि अरे ये में क्या पढ़ रहा हूं ऐसा तो कहीं मैं पहले पढ़ चुका हूं फिर भी मैं पढ़ता रहा, शायद एक ही स्थान होने के कारण कुछ पंग्तियाँ एक जैसी होंगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं निकला बल्कि सारे का सारा ही वृतांत शब्द से शब्द वाक्य तक एक जैसा ही देखा गया ।
मैने फिर से हेमेंद्र का आलेख पढ़ा तो बात स्पष्ठो हो गई कि आलेख तो एक ही है पर दोनों के लेखक अलग-अलग है और दोनों के शीर्षक भी अलग-अलग हैं, लेकिन क्या शीर्षक अलग-अलग होने से व्यक्ति की पहचान भी बदल जाती है ? सोचने की बात है, भला ऐसे कैसे हो सकता है क्या यह एक गलती है या भाई भतीजावाद! ? दाल में जरूर कुछ काला तो है दोनों लेखकों के शुरू से लेकर अंत तक एक जैसे विचार कैसे हो सकते हैं ? हां दोनों आलेखों को तीन अंतर देखे गए हैं, उनमें पहला है लेखक का नाम, दूसरा है आलेख का शीर्षक व तीसरा अंतर है पैरों में अंतर, जो की हेमेंद्र बाली में कुल 15 पैरो बनते हैं और हितेंद्र वाले में 11 बनते हैं ।
इसमें संपादक की चूक है या कुछ ओर, बहुत बड़ी गलती है, ऐसा ही आज से कुछ वर्ष पूर्व भी किसी लेखक ने पूरे के पूरे (कुछ एक मेरे आलेख के) पैरों को अपने आलेख मै प्रयोग किया था, जिसके लिए संपादक ने लेखक की धुलाई करते हुवे अपना खेद व्यक्त किया था, इधर तो पूरे का पूरा आलेख ही जैसे का जैसा ही छाप दिया है । बहुत ही खेद व दुख की बात है, इससे तो हमारी अकादमी ही नहीं वल्कि प्रदेश व लेखकों / साहित्यकारों की छवि को भी आंच आ सकती है और पाठक वर्ग को अलग से बेवकूफ बनता दिख रहा है ।
इस लिए इस संबंध में जांच होनी अति आवशक है । एक तरफ तो संपादकीय में लिखा जा रहा है कि हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहर को वरिष्ठ लेखकों की मदद व इस पत्रिका केमाध्यम से जन जन तक पहुंचाया जा रहा है, ये बात कहां तक सच है ये तो मेरे से बेहतर कौन जान सकता है, पिछले 2 – 3 सालों से न जाने कितने ही आलेख व रचनाएं (प्रदेश की कला व संस्कृति से संबंधित) सोमसी के लिए भेज चुका हूं, लेकिन आज तक उन रचनाओं का कोई अता पता नहीं ना जाने कब तक ये गड़ बड़ झाला चलता रहे गा ? यही सब कुछ सभा सम्मेलनों के आयोजनों में भी चलता है, बस बार बार वही अपने चमचों को बुला कर भाई भतीजावाद की रसम निभा दी जाती है, अब ये अंधे की रेवड़ियां बार-बार भाई भतीजों को ही नहीं बल्कि आंखे खोल के सब मे बांटनी होगी और इस सारी त्रुटि के पीछे क्या है, जांच जरूरी है जो की अकादमी को बदनाम होने से बचाने के लिए अति आवशयक है।
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