
आम देखा गया है कि कमज़ोर पर हर कोई शेर बन जाता है और उसे दबाने का प्रयास करता है। प्रकृति का भी यही नियम है कि वही जीवित रह सकता हैं जो परिस्थितियों का मुकाबला कर सकता हो अर्थात कमज़ोर का कही भी अस्तित्व नहीं रहता फिर वह इंसान हो या कोई अन्य जीव जंतु।आज समाज में भी यही स्थिति बनी है,हर कोई लूट खसूट में लगा है,जिसकी चलती है वही जीत जाता है और फिर मनमानी करता है। ऐसा ही कुछ ,किसी समय अंग्रेजों द्वारा विश्व के कई देशों को अपने अधीन करके लूटते रहे।इधर हमारे भारत में भी इनकी लूट और अत्याचार सीमा को लांघ रहे थे।वैसे तो अंग्रेजों के इधर अपने राज्य स्थापना के बाद ही , उनके विरुद्ध विद्रोह होने शुरू हो गए थे।
उन विद्रोहों में कुछ एक विशेष विद्रोह इस प्रकार से गिनाए जा सकते हैं, बंगाल का सैनिक विद्रोह, चुआड़ विद्रोह, सन्य विद्रोह,भूमिस विद्रोह व संथाल विद्रोह आदि जो कि बाद में एक महान विस्फोट के रूप में 1857 के विद्रोह में फूटा था।1857 के पश्चात तो फिर लगातार अंग्रेजों के विरुद्ध प्रदर्शन होने शुरू हो गए थे।पंजाब के कूका विद्रोह ने भी स्वतंत्रता संग्राम में अपनी विशेष भूमिका निभाई थी।वर्ष 1915 में रास बिहारी बोस व शाचिंद्रा नाथ सन्याल ने बंगाल के साथ साथ बिहार ,दिल्ली,राजपूताना व पंजाब से ले कर पेशावर तक कई एक छावनियां बना रखी थीं और नेता जी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा तो आजाद हिंद फौज का ही गठन कर दिया गया था।देखते ही देखते देश के कौने कौने से नौजवान क्रांतिकारी अपनी जान को हथेली में रखते हुवे ,क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने लगे थे। इन्हीं में से पंजाब के एक किसान सिख परिवार के, सरदार भगत सिंह भी आ जाते हैं।
पंजाब के गांव बंगा(अब पाकिस्तान) में माता विद्या वती व पिता किशन सिंह के यहां बालक भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को हुवा था (कहीं 27 सितंबर भी बताया जाता है)। कहते हैं कि वर्ष 1906 में जन्म के पूर्व भगत सिंह के पिता किशन सिंह व चाचा जेल में ही ( उपनिवेशीकरण विधेयक के विरुद्ध प्रदर्शन करने के कारण)थे।इसी लिए इन दोनों के छुटने व भगत सिंह के जन्म की खुशी में भगत सिंह की दादी ने बच्चे को भागा वाला कहते हुवे उसका नाम भी भगत सिंह रख दिया था। सरदार भगत सिंह की प्राराभिक शिक्षा डी0ए0वी0 पाठशाला व लाहौर कॉलेज में हुई थी। वर्ष 1919 में जब उसकी उम्र 12 साल की ही थी तो उस समय घटित जालियां वाला बाग की घटना ने उसको पूरी तरह से जकझोड कर रख दिया और वह अपने स्कूल से पैदल (12 मील की दूरी)ही चल कर वहां(जालियां वालां बाग )पहुंच गया था ।
आगे वर्ष 1922 में चौरी चौरा हत्या कांड की घटना के बाद जब वह महात्मा गांधी से मिला और उसे किसी प्रकार की तसल्ली न मिली तो उसका विश्वास अहिंसा से हट गया और वह( भगत सिंह) समझ गया कि आजादी बिना लड़ाई व हथियारों के प्राप्त नहीं की जा सकती और वह शीघ्र ही चंद्र शेखर आजाद से मिल कर गदर पार्टी में शामिल हो गया।इसी तरह जिस समय काकोरी काण्ड में राम प्रसाद बिस्मिल सहित 4 क्रांतिकारियों को फांसी व 16 को कारावास की सजा सुनाई गई तो भी भगत सिंह को बड़ी निराशा हुई और फिर वह चंद्र शेखर आजाद से मिल कर हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गया।,वर्ष 1928 को जब साइमन कमीशन के विरोध में लाला लाजपत राय प्रदर्शन कर रहे थे तो उन पर पुलिस लाठियों का ऐसा प्रहार हुवा ,जिसे लाला जी सहन नहीं कर पाए और वह वीर गति को प्राप्त हो गए थे।
इसका भी भगत सिंह को भारी आघात पहुंचा था ,जिसका बदला लेने का सोच कर भगत सिंह ने अपने साथी राजगुरे से मिल कर 17 सितंबर 1928 को सहायक पुलिस अधीक्षक जेo पीo सांडर्स को गोली से उड़ने में सफल हो गए,वैसे योजना के अनुसार मरना तो पुलिस अधीक्षक स्टॉक को था,पर उन्होंने लाला जी का बदला ले लिया था।इसके पश्चात अपनी पहचान को छुपाने के लिए भगत सिंह ने अपने बाल कटवा कर होलिया ही बदल लिया । 8अप्रैल 1929 के दिन भगत सिंह अपने साथियों बटुकेश्वर दत्त और चंद्र शेखर आजाद के साथ अगले कार्यक्रम में ब्रिटिश भारतीय असंबली सभागार के सांसद भवन में बम व पर्चे फेकने में सफल हो गए और वहां से भागे नहीं बल्कि वहीं खड़े रहे , चाहते तो भाग सकते थे।बाद में पकड़े जाने पर उन्हें 2 वर्ष की सजा सुनाई गई।जेल में रहते हुवे इन्होंने 64 दिनों तक भूख हड़ताल भी की,जिसके फलस्वरूप यतिंदरनाथ की मृत्यु भी हो गई।जेल में रहते हुए भगत सिंह ने बहुत कुछ लिखा और प ढ़ा भी।
भगत सिंह अपने आप में एक उच्च विचारशील व दार्शनिक विचारधारा के मालिक थे वो अक्सर कहते थे कि मुझे आप मार सकते हो ,लेकिन मेरे विचारों को नहीं।मेरा शरीर कुचला जा सकता है,लेकिन मेरी आत्मा को नहीं।क्रांति मानव जाति का अविभाज्य अधिकार होता है,वैसे ही स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। दर्शन मानवीय दुर्बलता या ज्ञान की सीमाओं का परिणाम होता है। निर्दयी आलोचना और स्वतंत्र सोच,क्रांतिकारी सोच के दो जरूरी लक्षण हैं। मैं एक मनुष्य हूं और मानव जाति को प्रभावित करने वाली हर वस्तु मुझे चकित करती है।बहरों को सुनने के लिए आवाज ऊंची करनी पड़ती है।(इसी लिए तो उन्होंने असंबली हाल में बम के धमाके किए थे)विद्रोह क्रांति नहीं ,यह तो हमें अपने लक्ष तक पहुंचाने का मार्ग है।और प्रगति चाहने वाले हमेशा पुराने विचारों की आलोचना ही करते हैं और उन पर अविश्वास करके उन्हें चुनौती देते हैं।
सरदार भगत सिंह जो कि हमेश ही गरीब मजदूर किसानों के विरुद्ध (शोषण करने वाले अंग्रेजों व पूंजीपतियों के विरुद्ध थे) होने वाले अत्याचारों के बारे में अक्सर लिखते रहते थे ,को 29 अगस्त ,1930 को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 129 व 302 तथा विस्फोटक नियम की धारा 4 और 6 एफ के साथ आई पी सी की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी घोषित कर दिया गया था।फिर 68 पृष्टों की एक लम्बी रिपोर्ट के साथ 7 अक्टूबर 1930 को उन्हें( सरदार भगत सिंह),सुख देव व राजगुरु को फांसी की सजा सुना दी गई और साथ ही लाहौर में धारा 144 लगा दी गई।इसके पश्चात फांसी की सजा को रद करने के लिए प्रिवी परिषद में याचना भी की गई ,जो कि 10 जनवरी 1931 को रद कर दी गई।कांग्रेस के अध्यक्ष पंडित मदन मोहन मालवीय द्वारा 14 फरवरी 1931 को व महात्मा गांधी द्वारा 17 फरवरी 1931 को ,वॉइस राय से इस संबंध में बात भी की गई ,लेकिन कुछ नही बना तो फिर आम जनसमूह द्वारा याचना दाखिल की गई,लेकिन सरदार भगत सिंह किसी भी प्रकार से अंग्रेजों के आगे झुकने के खिलाफ थे फलस्वरूप 23 मार्च ,1931 को तीनों क्रांतिकारियों (भगत सिंह,सुख देव व राजगुरु) को फांसी पर लटका दिया गया।
कहते हैं कि सरदार भगतसिंह उस समय लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्होंने तब अपने दूसरे साथी क्रांतिकारीयों से मिलने की इच्छा जताई थी और फिर उन्होंने किताब को उछाल कर ऊपर फेंक कर कहा था, अब चलो । कहते है कि फांसी की ओर जाते हुवे,तीनों के इक्कठे स्वर से ये गीत सुनाई दे रहा था, *मेरा रंग दे बसंती चोला मां माए रंग दे बसन्ती चोला ऐसा भी बताया जाता है कि अंग्रेज लोग उस समय इतना डर गए थे कि वे आम जनता तक उस फांसी की सूचना को नहीं पहुंचाना चाहते थे । बड़े ही दुख के साथ यहां बताना पड़ रहा है कि उन जालिमों ने शहीदों की मृत देह के टुकड़े करके बोरी में डाल कर मिट्टी के तेल से जलाने का प्रयास भी किया था ताकि लोगों को भनक न मिल सके। लेकिन कुछ गांव वालों को उसकी जानकारी मिल गई और फिर उन्होंने अपने शहीदों की विधिवत रूप से मान सम्मान के साथ दाह संस्कार की रस्म अदा कर दी क्रांतिकारी वीर सुख देव जो कि विलेजर उपनाम से भी जाने जाते थे और लुधियाना के खत्री थापर परिवार से संबंध रखते थे।
इनका जन्म माता श्रीमती रल्ली देवी व पिता राम लाल थापर के यहां लुधियाना में 15 मई ,1907 को हुआ था,लेकिन पिता की मृत्यु इनके जन्म से 3 माह पूर्व ही हो गई थी।इनका लालन पालन इनके ताई व ताया चित्त राम जी द्वारा किया जा रहा था।लाहौर के नेशनल कॉलेज में सरदार भगत सिंह के साथ पढ़ने के कारण ही दोनों क्रांतिकारियों में अच्छी बनती थी।वर्ष 1929 में जिस समय सुख देव जेल में ही थे तो उस समय कैदियों के प्रति होने वाले दुर्व्यवहार के लिए हड़ताल पर भी बैठे थे। वीर क्रांतिकारी राज गुरु:का पूरा नाम शिव राम हरि राजगुरु था।राजगुरु जो कि महाराष्ट्र के ब्राम्हण परिवार से संबंध रखते थे,का जन्म 24 अगस्त, 1907 को माता श्रीमती पार्वती बाई व पिता हरि नारायण के घर पूना जिला के खेड़ा गांव में हुआ था। जब राजगुरु अभी 6 वर्ष का ही था तो इनके पिता श्री हरि नारायण चल बसे थे।
ब्राह्मण परिवार से संबंध रखने के कारण ही इनके रिश्तेदारों ने इन्हें छोटी आयु में ही संस्कृत की शिक्षा के लिए बनारस भेज दिया था। जहां राजगुरु ने शीघ्र ही कई एक धार्मिक संस्कृत साहित्य व वेदों का अध्ययन कर लिया और वहीं रहते हुवे इनका कई एक क्रांतिकारियों से परिचय भी हो गया,क्योंकि देश प्रेम की भावना इनमें कूट कूट कर भरी थी।तभी तो चंद्र शेखर आजाद के विचारों से प्रभावित हो कर शीघ्र ही हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी से भी जुड़ गए।इधर इन्हें इनके छंदम नाम रघु नाथ से ही जाना जाता था।क्रांतिकारियों में पंडित चंद्र शेखर आजाद ,सरदार भगत सिंह व यतींद्र नाथ दास इनके पक्के मित्र थे। जिस समय सांडर्स को मार गिराया गया था तो उस समय सरदार भगत सिंह व राज गुरु (दोनों)के साथ चंद्र शेखर आजाद साए की तरह पीछे ही था।इस तरह मिल कर इन क्रांतिकारियों ने लाला लाजपत राय की कुर्बानी का बदला ले लिया था।लेकिन इन वीर क्रांतिकारियों (सरदार भगत सिंह,सुख देव व राज गुरु)को तो सब कुछ पता होते हुवे भी टस से मस नहीं हुवे और हंसते हंसते तीनों इकट्ठे 23 मार्च,1931 फांसी पर लटक कर देश के लिए कुर्बान हो गए ! आज हम अपने आजाद देश में रह कर आजादी के सुख भोग रहे हैं ,जिसके लिए न जाने कितने के ही क्रांतिकारियों और देश भक्तों ने अपनी जान की परवाह न करते हुए हंसते हंसते अपने प्राणों की आहुति दे डाली ! मेरा उन सभी शहिदों को शत शत नमन !