October 14, 2025

शर्तिया ईलाज़ (व्यंग्य) – रणजोध सिंह

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रणजोध सिंह – नालागढ़

बुत-तराश ने मुस्कान को भरपूर समय दे कर गढ़ा था। रूप यौवन के साथ-साथ वह एक कोमल ह्रदय की स्वामी भी थी। चेहरे पर अलौकिक आभा और कंठ में सरस्वती विराजमान थी। मिलने वाला कोई भी शख्स उसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। वह स्वयं तो गृहणी थी पर उसका पति सुशील एक सफल बिजनेसमैन था। वह केवल नाम का ही सुशील नहीं अपितु सचमुच सुशील था। कुल मिला कर मुस्कान के जीवन में मुस्कान ही मुस्कान थी।

एक दिन अनायास ही बाल सवारते समय मुस्कान ने महसूस किया, उसकी कंघी से कुछ ज्यादा ही बाल टूट गए थे। उसने दौड़ कर दर्पण में देखा तो ये समझते देर न लगी कि उसके सुंदर बाल उसका साथ छोड़ने लगे थे। उसे याद आया उसके पिता जी अक्कसर कहा करते थे कि इस संसार में जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है उसका क्षय निश्चित है चाहे वह जड़ हो या चेतन| परन्तु बालों के बिना नारी सोंदोर्य की कल्पना, कम से कम भारतीय नारी तो नहीं कर सकती| केवल पैंतीस वर्ष की अल्प आयु में ही बालों को खो देना उसे नागवार गुजरा।

फिर दवाइयों का दौर शरू हुआ| असंख्य तेल, शैम्पू, साबुन, अलोपैथी, होम्योपैथी व कई प्रकार के देसी टोटको की आज़मईश की गई मगर सब बेकार।

फिर एक दिन सुशील एक ऐसे डॉक्टर का पता लेकर आया जो बाल न झड़ने का शर्तिया ईलाज करता था। मुस्कान भी अपने पति संग २०० कि. मी. का सफर निजि वाहन में तय करके निर्धारित समय पर डॉक्टर के क्लीनिक पर पहुँच गई। बाल प्राप्त करने वाले मरीजों की भीड़ इतनी थी कि टोकन लेना पड़ा। मरीज़ पंखे की गरम हवा को फांकते हुए डॉक्टर साहिब की तारीफ करते हुए ख़ुद को ढांढस दे रहे थे| एक ने कहा, “ इनकी दवाई तो बाल न झड़ने का एक ऐसा रामवाण है जो कभी खाली नहीं जाता|” दूसरे ने कहा, “बाल झड़ना तो मामूली बीमारी है, इनकी दवाई अगर गंजे भी खा ले तो एक महीने में सारा सिर काले बालों से भर जाता है. सारे के सारे मरीज़ ज्येष्ठ महीने की तपती दोपहरी में इतनी सुकून से बैठे थे, मानो थोड़ी ही देर में उनके सिर पर बालों की खेती लहलाहने वाली है| लोग जैसे-जैसे डॉक्टर की तारीफ कर रहे थे, मुस्कान और उसके पति की धड़कनें उतनी ही बढ़ती जा रही थीं| दो घंटे के लम्बे इंतजार के बाद मुस्कान का नम्बर आया| वह तो पहले से ही डॉक्टर को मिलने को अति- उत्साहित थी| अपना नाम सुनते ही वह लगभग दोड़ती हुई डॉक्टर के कमरे में घुस गई, यहाँ तक कि उसने सुशील का भी इंतजार नहीं किया| सुशील भी बाहर ही उसका इन्तजार करने लगा|

खैर, वह जितनी तत्परता से अंदर गई थी उतनी ही शीघ्रता से खिलखिलाते हुई बाहर भी आ गई| वह लगातार हंस रही थी सुशील ने हैरानी से पूछा, “क्या हुआ?” लेकिन वो हँसते ही जा रही थी| “डॉक्टर ने क्या कहा?” सुशील ने फिर पूछा| मगर वह और जोर से हंसने लगी| सुशील ने इस बार थोड़े गुस्से से कहा, “कुछ कहोगी भी, आखिर हुआ क्या?” मुस्कान अब भी हंस रही थी| उसकी इस खिलखिलाहट पर न केवल सुशील अपितु अन्य मरीज़ भी हैरान-परेशान हो रहे थे मगर मुस्कान तो हंसते-हंसते लोटपोट हुए जा रही थी| बड़ी मुशकिल से बोली, “मैंने किसी शायर की दो पंक्तियाँ याद की थी वो यहाँ काम आ गई

“जिन्दगी को कई बार हमने इस तरह से बहलाया है,

जो ख़ुद न समझ सके औरों को समझया है|’

अरे! डॉक्टर साहिब खुद तो बाल्ड है, मेरा ईलाज़ क्या करेगें?” और वह फिर पेट पकड़ कर हंसने लगी| पर इस बार वह अकली नहीं सुशील भी उसके साथ हंस रहा था|

तरक्की (लघुकथा) – रणजोध सिंह

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