October 15, 2025

तरक्की (लघुकथा) – रणजोध सिंह

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रणजोध सिंह – नालागढ़

रामदास काफी दिन बाद गाँव आया था| शहर की हवा में वह कुछ इस तरह रम गया था कि गाँव को लगभग भूल ही गया था| आज गाँव में कदम रखते ही उसे अपना बचपन याद आ गया जहाँ पर हरे-भरे खेत थे, पनघट था, पीपल के पेड़ थे, उसके हम उम्र दोस्त थे, जिनके जीवन का एक मात्र उद्देश्य खाना-पीना और खेलना था| वह अपने दोस्तों संग स्कूल भी जाता था मगर इसलिए नहीं की पढ़ लिखकर उससे बड़ा आदमी बनना था, अपितु इसलिए कि उसके दोस्त भी स्कूल जाते थे| परीक्षा परिणाम की किसी को ज्यादा चिंता नहीं होती थी| परीक्षा परिणाम वाले दिन दो ही बातें होती थी या तो बच्चा पास हो जाता था या फिर फेल| यदि पास हो जाता तो घर वाले सोनू हलवाई की दुकान से लड्डू लेकर आते और पूरे गाँव में बाँट देते| पास होने वाले बच्चे को सभी लोग आशीर्वाद देते|

यदि कोई बच्चा फेल हो जाता तो भी गाँव के लोग उसका होंसला बढ़ाते हुए कहते, “कोई बात नहीं पास-फेल तो लगा ही रहता है| परीक्षा कोनो कुंभ का मेला है जो बारह साल में एक बार आवे है| अगले साल फिर पेपर दे देना|” बच्चा यह मीठे वचन सुनकर आश्वस्त हो जाता और हँसता हुआ बच्चों की टोली में शामिल हो जाता|

रामदास सोच रहा था कि क्या गाँव के लोग अभी भी उतने ही भोले होंगे| तभी उसे एक बुजुर्ग महिला लाठी के सहारे चलते हुए नज़र आई| जैसे ही वह पास आई रामदास ने उसे पहचान लिया, वह पूरे गाँव की स्नेह-वत्सल माँ समान थी, जिसे सारा गाँव काकी कहकर पुकाराता था| उसने आगे बढ़कर काकी के पैर छुए और बड़े ही आदर से बोला, “काकी आपने मुझे पहचाना? मैं हूँ आपका रामदास|” “रामदास, कुणसा रामदास?” काकी ने हैरान होते हुए पूछा| “अरे वाह काकी, आपने मुझे पहचाना नहीं, मैं विशन दास का बड़ा बेटा रामदास हूँ, जो दसवी पास करने के बाद शहर नौकरी करने के लिए चला गया था|” “रे हाँ हाँ, इब पिछाणा, तू रामू है, बिष्णु का छोरा| रे बेटा, तेरी काकी इब बूढ़ी हो गी है|”

काकी थोड़ी देर के लिए रुकी फिर आत्मीयता से बोली, “आच्छा तू न्यू बता, आजकल के काम करे से?” “काकी मैं तहसील में तहसीलदार बन गया हूँ|” रामदास ने छाती फुलाकर कहा| “ बेटा, यो तो घणी आच्छी है, पर मने न्यू बता, तेरी कुछ तरक्की होइ हक है ना?” मने न्यू बता, तू पटवारी कद बणेगा? मैं तो उसे दिन की बाट देखूँ हूँ, कि जब तू पटवारी बणेगा|… आच्छा बेटा घरा जरूर आणा|”

यह कहकर काकी आगे निकल गई और रामदास किंकर्तव्यविमूढ़ होकर काकी के भोलेपन पर मंद मंद मुस्कुराने लगा|

जहां चाह वहां राह (लघुकथा) – प्रो. रणजोध सिंह , सोलन

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