दूर सूर्य अपना चक्कर पूरा करने के लिए क्षितिज की फैली बाहों की ओर अग्रसर हो रहा था। दिन भी तो सांझ के दामन में खो जाने के लिए इस प्रकार तत्पर था जैसे कोई किनारा मचलती लहरों की इंतजार में अक्सर बेचैन रहता हैं। उधर वहीं स्थलः जहां पौ फटने से पूर्व ही चहल कदमी और आने जाने वालों का तांता लगा रहता था, बसों और गाड़ियों की पौं-पौं… की आवाजें आने जाने वालों को चैकन्ना करती थी वहीं वह स्थल एक खामोशी धारण किए शांत और सुनसान नजर आ रहा था। सभी आने जाने वाली बसें छूट चुकी थी बीच-बीच में उस शांत वातावरण को चीरती व धूल उड़ाती पर्यटकों की दौड़ती मोटर कारें व गाड़ियां अपने आगमन का परिचय दे रही थीं।
अमित अपने बुक स्टाॅल में बैठा उपन्यास पढ़ने में व्यस्त था । कोई आगन्तुक समाचार पत्र या पत्रिका लेने आता तो वह उसे निराश किए बिना पत्र पत्रिका पकड़ा कर फिर से पढ़ने में व्यस्त हो जाता था। आखिर दिन की खचखच में उसे समय भी कब नसीब होता था ! कोई अपने मन पसंद की पत्रिका पूछता तो कोई समाचार पत्र, फिर यदि दिन में ही उपन्यास ले बैठेगा तो अपने पेट को किस के यहां ले जायेगा? इसी लिए आए दिन अपने शोक को पूरा करने के लिए वह सांझ के सयम खाली पलों में एक आध उपन्यास पढ़ ही लेता था।
अमित अभी अपने उपन्यास के कुछ ही पन्ने पढ़ पाया था कि अचानक उस शांत वातावरण में एक गाड़ी की ब्रेक (की आवाज) से उसकी नजरें उपन्यास से हट गई और वह उस नीली सी कार को देखने लगा य जोकि एकदम उसके बुक स्टाल के आगे ही रूकी थी। उसने कार में एक सुंदर दुबली पतली नई नवेली दुल्हन को बैठे देखा। कार चालक जो कि एक लम्बा ऊंचा सुंदर युवक था, ने कार से उतर कर कार का द्वार बड़े ही अदब से खोला। शायद वह उस लाल साड़ी में लिपटी युवती का पति ही था। दोनों के हाव भाव से ऐसा जान पड़ रहा था जैसे दोनों की अभी नई-ंनई शादी हुई हो और वह कहीं हिल स्टेशन पर हनीमून मनाने जा रहे हों।
देखते ही देखते दोनों अमित के स्टाल के पास पहुंच कर रूक गए। युवक ने पत्रिकाओं को देखते हुए उनमें से ”सूर्य“ पत्रिका निकाली और उसके पन्ने पलटने लगा। युवती की नजर उपन्यासों की ओर थी, फिर वह सरसरी निगाहों से उपन्यासों की ओर देखते हुए पूछने लगी,” आपके पास गुलशन नंदा का फ्रेश कौन सा हैं मैहबूबा नहीं है ?“ अमित की जिज्ञासू आखें जोकि युवती को काफी देर से निहार रहीं थीं शायद पहचान गई थीं। उसकी आवाज सुनकर तो वह ओर हैरान हो गया था। आखिर साहस करके वह पूछने लगा,” आपको !“ कहते कहते उसने उपन्यासों के बंडल को युवती की तरफ देते हुए व बात को बदलते हुए कहा,” हमारे पास तो इस समय ये ही हैं मैडम फ्रेश, इनमें से देख लें “ अमित की नजरें शायद उसके चेहरे पर कुछ तलाश रही थीं और फिर जब उसने उसकी दांई पलक पर चोट का निशान देखा तो उसका रहा सहा शक भी जाता रहा ।
“उषा ही तो थी वह !”इसी उधेड़ बुन में अमित अतीत की यादों में खो गया ! सिगनल डाउन हो चुका था। सभी की नजरें रेलगाड़ी के डिब्बे से बाहर प्लेटफार्म पर इधर-उघर उसे ही खोज रही थीं और सर मानिक भी, गार्ड की खुशामत में व्यस्त थे। ”बस जनाब थोड़ी देर इंतजार कर ले हमारी एक लड़की अभी यहीं कहीं भीड़ में खो गई है, प्लीज लेैट् हर कम ! हरी अप उषा देखों तुम्हारी खातिर गार्ड साहिब ने गाड़ी रोक रखी हैं तुम लोग अपनी जिम्मेवारी तो कुछ समझते ही नहीं ! न जाने बिना बताए तुम लोग कहां – 2 उतर जाते हो !“ मानिक सर गुस्से और आवेश में न जाने क्या-ंक्या बोले जा रहे थे।उषा उपन्यास उठाए (हांफते हुए) दौड़ी आ रही थी।
इसी मध्य मानिक सर की डांट व डर के कारण जल्दी से गाड़ी पर चढ़ते चढ़ते उसका पांव पायदान से फिसलने ही वाला था कि अमित ने उसे बांहों से थाम लिया। उषा अब अपनी सीट पर बैठक चुकी थी, लेकिन उसका दिल धक-धक कर रहा था, वह सोच रही थी कि यदि अमित ने उसे न थामा होता तो सोचते-2 उसकी आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा थोड़ा संभली तो उसे अपनी गलती का आभास हुआ और उसने अपनी नजरें नीचे झुका ली !
फिर गुस्से में अंदर ही अंदर सर को कोसने लगी ! उधर मानिक सर का उपदेश अभी भी चल रहा था, ”इसने तो सारे टूअर का मजा ही किरकिरा कर दिया हैे अरे भई आखिर क्य रखा हैं इन उपन्यासों में….? चैबीस घंटे उपन्यास ही उपन्यास, यदि उपन्यास ही पढ़ने थे तो घर में ही रहना था हमें यह सिरदर्दी तो मोल न लेनी पड़ती !“ ” उषा जी कौन सा उपन्यास लाई हैं गुलशन नंदा का या गुरूदत्त का ?” अमित सर की ओर मुस्कराते देख कर, उषा से छेड़छाड़ के अंदाज में पूछ रहा था। उधर बेचारी उषा चुपचाप सभी को सुनते हुए अंदर ही अंदर न जाने किस-2 को कौस रही थी ? फिर उसने नजरें उठाकर अमित की ओर देखा और खामोशी में ही नीचे की ओर देखने लगी।
पास बैठी माधुरी से भी नहीं रहा गया और वह भी हंसते हुए धीरे से कहने लगी ” देखा, यदि आज अमित ने न थामा होता तो सबकी बारी आ जानी थी अच्छा अब तुम न इसे मंझधार में छोड़ देना, बेचारा सारे प्लेटफार्म में दौड़ता रहा तुम्हारी खातिर।“ ”अमित कितनी बार तुम्हें कहा कि अपने ग्रुप का ध्यान रखना मगर तुम्हारा ग्रुप तो हर जगह कुछ न कुछ गुल खिला ही देता हैं। जयपुर में शालू का कोट कोई खींच कर ले गया और इधर तुम्हारी उषा गुलशन नंदा के उपन्यासों में ही खो गई अभी तो कन्याकुमारी बहुत दूर हैं आगे न जाने क्या करोगें?“ मानिक सर तब से बोले ही जा रहे थे।
”नहीं, सर असल में उषा को गुलशन नंदा के उपन्यासों के बिना सफर में थकावट सी महसूस होने लगती हैं, इसीलिए उपन्यास की खोजबीन में थोड़ी लेट हो गई, वर्ना तो सबसे आगे ही रहती है।“ अमित उषा की ओर देखते हुए सर को कह रहा था, ताकि सर ठंडे होकर शांत हो जायें। ”अरे भई अपना तो इधर पसीना निकल गया तुम कहते हो गुलशन नंदा के उपन्यासों से थकावट दूर होती है !“ अमित व अन्य विद्यार्थियों की टिप्पणियों से सर कुछ शांत व सामान्य स्थिति में आ गये थे। ”अच्छा तो उषा को गुलशन नंदा से बड़ा लगाव हैं ! क्यों उषा ठीक हैं?“ उषा को उदास देखकर मानिक सर मुस्कराते हुए उससे पूछ रहे थे।
”अरी इसमें शर्माने की क्या बात हैं? सभी के अपने अपने प्रिय लेखक होते हैं, चलो तुम्हें बम्बई में नंदा साहिब से भी मिला देगें। क्यों उषा ठीक है न?“ ”हां, सर जब जा ही रहें हैं तो फिर मिलने में क्या हर्ज होगा, और उषा को उनके उपन्यासों की जरूरत ही नहीं रहेगी।“ अमित उषा की ओर देखकर मुस्कराते हुए मानिक सर से कहे जा रहा था। बीस दिन न जाने कैसे बीत गए और अब टूअर की वापिसी यात्रा शुरू हो चुकी थी। ऐसा लग रहा था मानों नदी का पानी उतर चुका हो और वह सैलाब जो कुछ समय पूर्व आया था खत्म हो गया हो। सभी चुपचाप अंजान मुसाफिरों की तरह अपना-2 सामान संभालते हुए अपने-2 ठिकानों (निकटतम स्टेशनों) पर उतरते जा रहे थे जो उत्साह व जिज्ञासा टूअर के प्रस्थान के समय थी वह वापिसी में नहीं दिखाई दे रही थी। उधर अमित और उषा
जिनका पड़ाव सबसे अंतिम था अभी भी बातों में व्यस्त थे। ”देखों अमित, अंधेरा काफी हो चुका हैं, तुम आज पहुंचकर हमारे यहां ही रूक जाना। मुझे भी तुम्हारा साथ मिल जायेगा, वरना इतनी रात मैं अकेली घर कैसे पहुंच पाउंगी?“ ”अरे तू घबराती क्यों है? जब इतने दिन तुम्हारी उंगली थामे रहा, तो क्या अब तुम्हें ऐसे ही बीच में छोड़ दूंगा? वह भी मंजिल के करीब पहुंच कर। देखों पहले तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचाऊंगा फिर आगे की सोचूंगा।“ अमित एक कमान से दो-तीर चलाते हुए कहे जा रहा था।”देखों उषा मेरा काम तो तुम्हें ठीक-ठाक तुम्हारे माता पिता को सौंपना है, आगे तुम्हारी मर्जी तुम जिधर जाओ।“ उषा सब कुछ चुपचाप सुने जा रही थी। छुट्टियां समाप्त हो गई थीं।
कालेज में फिर से रौनक आ गई, लेकिन अब की बार रौनक कुछ खास ही थी। टूअर से वापिस आए विद्यार्थियों की अपनी अलग-2 टोलियां बन गई थीं। सभी अपने टूअर के अनुभवों को अपने मित्रों को सुना कर प्रभावित कर रहे थे, कोई किसी का किसा सुना रहा था तो कोई किसी का ! ”हैलो रंजना, कहों कैसी रही तम्हारी छुट्टियांऔर टूअर प्रोग्राम? सुना हैं तुम्हारा कुछ सामान बंबई में चोरी हो गया था?“ ”नहीं तो कौन कहता है? बम्बई में तो हमारा कोई सामान चोरी नहीं गया।“ माधुरी हैरानी से रंजना से कह रही थी। ”अच्छा अच्छा नहीं गया होगा भई पर हमने तो ऐसा भी सुना हैं कि उषा को गोवा में कुछ गुडों ने पकड़ लिया था। क्या यह सच हैं?“ रंजना ने एक बार फिर बात करते-2 माधुरी से पूछ ही लिया। ”न जाने लोग घर बैठे-2 क्या-ं 2 अंदाजे लगाते रहते हैं? हम जो टूअर से आ रही हैं हमें कुछ मालूम नहीं और यहां इनसे हमारे बारे में नई-2 बाते सुन लो !“
”अरी उषा सुना तुम ने भी क्या कह रही हैं रंजना जी,“ कहते-2 माधुरी ने रंजना द्वारा सुनाई सारी मन घड़ंत बातें उसको सुना दी। जिन्हें सुनते ही सभी जोर-2 से हंसने लगे। इतने में दूसरे टूअर वाले साथी भी पहुंच गए। रंजना उन सब में अपने को अकेला पा कर वहां से चुपचाप खिसक गई। पिरियड की घंटी बज चुकी थी। सभी क्लासरूम में पहुंच गए। सर ने हाजरी लगा कर रजिस्टर अभी रखा ही था कि उषा और अमित ने कमरे में प्रवेष किया। ”अरे भई, तुम्हारा टूअर प्रोग्राम अभी खत्म नहीं हुअ? कहों, कैसा रहा तुम्हारा टूअर प्रोग्राम? अमित तुम्ही सुनाओं।“ ”क्या सुनाएगा बेचारा सारे टूअर में चैकीदारी ही तो करता रहा कभी उषा की तो कभी माधुरी की “ पीछे बैंच पर बैठे किसी मनचले ने धीरे से सहानुभूति प्रकट करते हुये कहा और फिर सारी क्लास जोर-2 के ठहाकों से गूंज उठी।
”सायलेंट प्जीज सायलैंट, हां उषा तुम बताओं गी कुछ अनुभव अपने भ्रमण के? सुना है तुम दिल्ली में कहीं खा गई थी बड़ा मजा रहा होगा तुम्हारे इस टूअर प्रोग्राम में, अपने मानिक जी बता रहे थे। हां क्या-2 देखा तुमने हैदराबाद में?“ सर उषा और अमित की ओर देखते हुए पूछ रहे थे।” ”अजी इन से पूछो, क्या-क्या नहीं किया और देखा इन्होंने अपने इस टूअर में? कितने दिल मिले कितने टूटे !“ पीछे से उठी धीमी सी आवाज कमरे में फिर हंसी की गूंज में लुप्त हो गई। दिन बीतते गए। टूअर वाले लड़के लड़कियों में काफी घनिष्ठा बन गई थी। जब भी कहीं खाली पिरियड होता तो वही पुरानी यादें दोहराई जाती। उषा और अमित भी एक दूसरे के काफी निकट आ चुके थे।
जहां से भी वह दोनों निकलते उधर से ही उन्हें कोई न कोई रिमार्क जरूर सुनने को मिल जाता। यहां तक कि अब तो लड़कियां भी उन दोनों को देखकर कुछ न कुछ रिमार्क दे ही देती थीं। लेकिन वह दोनों अब किसी की परवाह किए बिना खाली पिरियड में करीब वाले जालपा देवी मंदिर परिसर में चले जाते थे। बहाना तो पढ़ने का ही होता था मगर न जाने क्या-2 बाते चलती थीं कुछ नहीं कहा जा सकता। उस दिन उषा का चेहरा कुछ उतरा-2 सा नजर आ रहा था। ” उषा आज अपनी मम्मी से झगड़ कर आ रही होे क्या? सुबह से तुम खामोश और उदास दिखाई दे रही हो। तीसरे पिरियड में भी मैं कैंटीन में बैठे तुम्हारा इंतजार करता रहा तुम कहीं भी दिखाई नहीं दी।
आखिर बात क्या हैे? बाॅटनी का पिरियड भी तुमने नहीं लगाया“ अमित मंदिर की ओर जाते हुए उषा से पूछे जा रहा था। फिर अचानक डाली से फूल तोड़कर उषा को देते हुए कहने लगा, “अरे ये आंसू कैसे….? तुम तो रो रही हो।“ उषा के गालों पर मोटे-2 आंसू टपक रहे थे और वह कहने लगी,” अमित मुझे क्षमा करना हां अमित सच मुझे क्षमा करना । “ कहते-2 वह रूक गई और अपने आंचल के पल्लू से आंसूओं को पौछते-2 कहने लगी,”अमित पापा ने मेरे लिए लड़का देख लिया हैं !“ और फिर वह सिसकियां भरने लगी। ”तो क्या हुआ उषा धीरज रखों सब ठीक हो जायेगा तुमने मम्मी से नहीं बात की थी?“
अमित उषा को समझते समझते पूछे जा रहा था। ”मम्मी तो तुम्हें अच्छी तरह जानती है और मैंने तुम्हारे व तुम्हारे समस्त परिवार की भी जानकारी दे दी थी। वह तो राजी थी लेकिन पापा ने इसके लिए साफ इंकार कर दिया हैं।“ इतना कहते-2 उसकी आंखों में फिर आंसू भर आये और अपने पापा के कहे शब्दों में खो गई,”क्या अपनी बरादरी के लड़के मर गए हैं जो उस गांव के ब्राहम्ण को अपनी लड़की दे दूं। समझता हॅू लड़की स्यानी हो गई है उसका भी मैं प्रबंध कर दूंगा। “ उषा ने फिर नाक सिकौड़ते हुए कहा,” पापा तो मेन बाजार के जनरल मरचैंट लाला राम नाथ के लड़के के बारे में बता रहे थे।“
”अच्छा-2 वह उनका लम्बू नरेंद्र ,जानता हूॅ मैं उसे। मगर मैने तो उसके साथ सरिता को कई बार देखा हैं। सुना हैं उसके साथ उसकी बात भी चल रही हैं! खैर कोई बात नहीं, बड़े लोगों की बड़ी-2 बातें चलती रहती हैं।उषा जी, तुम चिंता मत करों…..,भगवान ने चाहा तो सब ठीक हो जायेगा।“ अमित उसे सांत्वना देने लगा। ”नहीं अमित इस रविवार को तो पापा उन्हें जबाव भी देने वाले हैं। पापा कह रहे थे कि अच्छा खाता पीता परिवार है। एक ही लड़का हैं मकान कारोबार और बागीचे हैं, अपनी उषा तो राज करेगी उस घर में।“ ” भाड़ में जाये उनके बाग बागीचे और कारोबार, मुझे नहीं चाहिए !“
उषा आवेष में आकर न जाने क्या 2 कहें जा रही थी। अगले दिन उषा जब कालेज पहुंची तो उसका रंग रूप ही बदला हुआ था और अपनी 8-10 सहेलियों के साथ उसका चाय पार्टी के दौर चल रहा था। ”क्यों उषा ? कहां जा रही हो…..? अंग्रेजी का पिरियड हैं, नहीं, जाओगों? ”नहीं अमित आज नही। चलो आज फल्लावर कलेक्शन के लिए चलते हैं, आज प्री मैडिकल वाले भी जा रहे हैं और सर से भी मैने पूछ लिया हैं।“ इतना कहते हुए उषा व अमित भी प्री मैडिकल के विद्यार्थियों के साथ-2 (बाते करते हुए) धीरे-धीरे चल पड़े। ”अमित आज मैें बहुत खुश हूं जानतें हो क्या हुआ उस पापा वाले रिश्ते का? हां टूट गया, अच्छा हुआ। मैंने भी उन्हें अच्छी चपत मारी हैं, कहते थे और तो कुछ नहीं बस यह छोटी सी लिस्ट हैं।
देखों बरादरी में दिखाना पड़ता हेै बाकि भगवान का दिया सब कुछ हैं। मगर फिर भी रस्मों रिवाज तो निभाने ही पड़ते हैं न बाबू शिव लाल जी।“ ”पापा तो कहते थे कहीं से कर्ज लेकर दे दूंगा। मगर मैनें तो उनके मुंह पर ही इंकार करके कह दिया, यहां से निकल जाओं अगर इज्जत प्यारी है तो नहीं तो आपको इसी लिस्ट के साथ लोहे के कंगन पैहना दूंगी….समझे? अच्छा हुआ भिखारी मंगतों से पीछा तो छूटा।“ कहते-2उषा गमले में लगे पत्तों को मसलने लगी।उषा अब पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो चुकी थी। फोड़े का इलाज तो उसने उसके फूटने से पूर्व ही कर दिया था, वरना न जाने फटने पर क्या-2 रंग दिखाता!
अमित ने भी तो इस इलाज में पूरा-2 सहयोग दिया था जिसके फलस्वरूप दोनों में एक दूसरे के प्रति स्नेह और मिलन बड़ने लगा था। तभी तो समस्त काॅलेज में ही क्याः अब तो दफतर व कैंटीन में भी दोनों के प्यार के चर्चे चलने लगे थे। लेकिन उन दोनों के अटल स्नेह में कोई परिवर्तन नहीं आया। डिपारचर का दिन था। सभी अपने गिले-शिकवे , हंसी खुशी में एक दूसरे से कहते हुए कहीं कोई किसी कर रोल नम्बर नोट हो रहा था तो कहीं पर घर का अता पता लिखा जा रहा था। अमित ने लगभग सभी के रोल नम्बर व पते पहले से ही नोट कर लिये थे तभी तो वह और उषा उस पीपल के पेउ़ के नीचे बैठे न जाने कब से अपनी बातों में व्यस्त थे।
”अमित परीक्षा के पश्चात कुछ दिन तो ठहरागें न?“ उषा अपनी पुस्तक के पन्नों को पलटते हुए अमित से बातों-2 में पूछ रही थी। ”नहीं,उषा, अब तो मुझे शीघ्र ही घर पहुंचना होगा। परसों ही पत्र आया हैं, घर पर पिता जी बीमार हैं, शायद इन होलीडेज में घर जाना पड़े। वैसे मेरे चाचा जी तो छुटटी लेकर घर पहुंच गए हैं। अब मैं अधिक दिन नहीं ठहर सकता। दिल के मरीज हैं और अक्सर बीमार रहते हैं।“ कहते -2 अमित खामोश हो गया। ”तो फिर परीक्षा के पश्चात भी यहां नहीं आओगें?“उषा ने खामोशी को तोड़ते हुए उदास भाव से पूछा। ”नहीं उषा ऐसी तो कोई बात नहीं, बस पिता जी की तबीयत एक बार ठीक हो जाये तो जरूर आऊंगा। वैसे पता नहीं कितने चक्कर काटने पउ़ेगें तुम्हारें इस शहर के चाचा जी तो अभी इधर ही हैं। इसलिए आना जाना तो बना ही रहेगा। हां तुम पत्र डालती रहना।“
अमित किताबें उठाकर चलने लगा फिर रूक गया और कहने लगा,” चलो चाय पी लेते हैं फिर न जाने कब मिलें।“ कैंटीन सुनसान पड़ी थी। एक बैंच पर लाला मुन्नी लाल (कैंटिन मालिक) हिसाब किताब कर रहा था। ”लाल जी, चाय नहीं पिलाओगे? क्या हिसाब किताब खोल रखा है?“ अमित ने साथ वाले खाली बैंच पर बैठते हुए पूछा। ” क्यों नहीं अमित बाबू, बैठे किए लिए है? अरे चेतू लाना दो प्लेट समोसे और चाय बाबू जी के लिए।“ लाला ने अपने नौकर चेतू को आवाज देकर चाय समोसे देने को कहा। ”नहीं लाला जी हम तो सिर्फ चाय ही पीने आएं हैं।“उषा कहने लगी। ”नहीं उषा जी, आज सब मेरी ओर से चलेगा !“ फिर तुम लोग कब इस तरह इकठठे आओंगें कैंटीन में, मैंनें भी तो सारा साल आप से पैसे लिए ही हैं।
आज की चाय मेरी ओर से। लाना चेतू दो प्लेट रसगुल्ले भी साहब के लिए।“ ”बस बस….लाला जी यह बहुत है।“ अमित व उषा दोनों मुस्कराते हुए लाला जी से कहने लगे और फिर चाय की चुस्कियां भरते हुए अपनी बातों में खो गए। ” उषा, तुम्हारे पापा का क्या विचार है? वह मान गए या नहीं?“ ”अमित पापा जी भला कहां हां करेगें? उनके मुंह से एक बार की निकली न कभी हां में नहीं बदलती, चाहे कोई कितना भी जोर क्यों न लगा ले अड़े ही रहते हैं। अमित मैंने तो सोच रखा हे कि परीक्षा के पश्चात कोर्ट मैरिज कर लेगें क्यों ठीक हैं न?“
उषा अमित की ओर देखते हुए बोले जा रही थी। ”मगर उषा फिर भी अपने पापा की राय ले लेती तो ठीक रहता।“ ”तुम इसकी चिंता मत करो अमित, मैंने मम्मी जी को सब कुछ बता रखा हैं। हां मैंने उस दिन पापा से साफ-साफ कह दिया था, मैं शादी करूंगी तो अमित से ही करूं गी वरना कभी नहीं।“ उषा के क्रांतिकारी शब्द सुनकर अमित के चेहरे पर चमक आ गई और वह भी जोश में आकर कहने लगा,” ठीक है उषा मैं भी तुम्हारे साथ हूॅ। तुम मुझे अपना सारा कार्यक्रम लिख भेजना, मैं उसी अनुसार तैयार हो जाऊंगा नहीं तो परीक्षा के समय बात कर लेगें। ठीक है न?“
” अमित बाबू हमें नहीं बुलाओगे शादी में?“ कैंटीन मालिक लाला मुनी लाल ने दोनों की प्यार भरी बातें सुन कर मुस्कराते हुए पूछा। ”वाह लाला जी वाह, शादी में सारी मिठाई तो आप के ही यहां से जायेगी फिर यह सारा खाने-पीने का कार्य आपने ही संभालना हैं । क्यों उषा जी ठीक हैं न?“ और फिर दोनों मुस्कराते हुए कैंटीन से बाहर आ गए। परीक्षाएं शुरू हो गई थी। अमित और उषा अक्सर सुबह पेपर से पूर्व या बाद में कैंटीन में ही मिल लेते और अपने आगे की तैयारी की थोड़ी बहुत चर्चा जरूरत कर लेते थे। उस दिन उनका अंतिम पेपर था। अमित के चाचा उससे मिलने कालेज में ही पहुंच गए थे।
शायद अमित के पिता की तबीयत अधिक बिगड़ गई थी जिसके फलस्वरूप अमित उषा से मिले बिना ही अपने चाचा के साथ सीधे गांव के लिए चल दिया। बेचारी उषा उस दिन न जाने कब तक उसका इंतजार करती रही ! तीसरे दिन जब उसे अमित का पत्र मिला तो स्थिति का पता चला। इस तरह लगभग 5-6 मास तक पत्र व्यवहार दोनों में चलता रहा लेकिन अमित एक बार भी उससे मिलने नहीं पहुंच पाया। क्योंकि अमित के पिता की स्थिति दिन प्रतिदिन बिगड़ती ही जा रही थी। बेचारा अमित सारा-2 दिन डाक्टरों व दवाईयों के चक्कर में ही खोया रहता। घर पर और था भी कौन जो दौड़-ं
धूप करता। दूसरी ओर जब-2 वह अपनी जवान बहिन को देखता तो उसे उसकी शादी की चिंता सताने लगती। जगह जमीन जो थोड़ी बहुत थी वह दिन प्रतिदिन पिता के ईलाज में महाजनों के हाथ जा रही थी। उसके पास पिता का दो कमरों वाला मकान व साथ लगती थोड़ी सी जमीन ही शेष बची थी। आखिर कब तक और कैसे घर का गुजर चलेगा? इन्हीं सोच की गहराईयों में डूबा अमित न जाने क्या-2 सोचता रहता, किसी को भी खबर न थी। उषा का पत्र भी उसे मिला था लेकिन किसने पढ़ा,,,? आखिर दोनों का पत्र व्यवहार बीच में ही टूट कर रह गया। फिर एक दिन अमित के पिता भी उसके सिर पर सारे घर का रहा-सहा बोझ छोड़कर सदा सदा के लिए उसे तड़पता छोड़ गए।
अमित के सारे स्वपनः स्वपन ही बन कर रह गए और परिस्थितियों ने उससे सब कुछ छीन लिया। वह बेचारा अतीत के सुहाने दिनों और भविष्य के स्वपनो को भूला बैठा ! अब उसके लिए सबसे बड़ी चिंता मां व बहिन की ही थी। कैसे-2 जुटा पाये गा घर का सारा खर्चा बहिन की शादी ! इन्हीं विचारों में खोया अमित समय और परिस्थितियों से टक्कर लेने के लिए घर से निकल पड़ा। मगर हर जगह उसे निराशा ही हाथ लगी। आखिर वक्त ने अंगड़ाई ली और निराशा में आशा की किरण फूटी। उसे जीवन रूपी गाड़ी को चलाने के लिए बस अड्डे में पेपर बूथ मिला गया और उसकी बहिन के हाथ भी पीले हो गए। अमित के मानस पटल पर न जाने क्या-2 विचार उभर रहे थे और वह अपनी अतीत की यादों में उलझता ही जा रहा था।
उसने अपने उपन्यास को फोल्ड किया और कहने लगा,”क्षमा करना मैडम आपका नाम उषा ही है न?” लेकिन उसी क्षण उसकी विचार श्रृंखला टूट गई जब वह अपने सामने किसी व्यक्ति को समाचार पत्र मांगते हुए पाता हैं। पत्रिकाओं के ऊपर पांच का नोट पड़ा था और वह कार वाली युवती उसकी आंखों से ओझल हो चुकी थी। उसकी उलझन अब और भी पेचिदा हो गई। वह सोचने लगा नहीं नहीं वह उषा नहीं थी। यदि उषा होती तो मेरे से जरूर बात करती।
नहीं वह उषा हो ही नहीं सकती, उसके पिता तो दफतर में लिपिक ही थे फिर उसके मन में दूसरा विचार आता है शायद उषा की हमशक्ल कोई और हो सकती हैं लेकिन उसकी बांई पलक पर कट का निशान भी तो उषा जैसा ही था आवाज भी उषा की तरह ही थी और वह भी तो गुलशन नंदा के उपन्यास पड़ती थी ! अमित न जाने क्या-2 सोच रहा था और फिर धीरे-2 कहने लगता है नहीं नहीं वह शादी नहीं कर सकती वह मुझे नहीं भूला सकती ! अमित की नजरें शून्य में खो गई और फिर करीब खड़ी साईकल को निहारने लगा साईकल के पैडल को एक बच्चा जोर 2 से घूमा रहा था घूमते पहिए की उलझी तारों (स्कोप) को अमित बड़े ध्यान से देख रहा था और उसे सब धुधला-धुंधला ही दिखाई दे रहा था ।