सयुंक्त राष्ट्र के तत्वाधान से प्रत्येक वर्ष 13 अक्तूबर को अन्तराष्ट्रीय आपदा जोखिम न्यूनीकरण दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिवस प्राकृतिक एवं निर्मित आपदाओं के प्रति अधिक संवेदनशील संस्कृति के निर्माण के उद्धेश्य से मनाया जाता है। हालांकि आपदा न्यूनीकरण की जिस संस्कृति निर्मित करने के लिए वैश्विक प्रयास चल रहे हैं। जिसकी जड़ें भारतीय संस्कृति में पूर्व से ही निहित है। भारतीय संस्कृति का विकास प्रकृति की गोद में हुआ है।
प्रत्येक संस्कृति का श्रद्धाभाव से अर्चन किया गया। प्राचीन भारतीय अनुशीलन से यहाँ ज्ञात होता है कि भारतीय सदैव से ऐसी संस्कृति के पक्षधर थे, जहां पर्यावारण से संतुलन स्थापित आपदाओं के न्यूनीकरण को सुनिशिचित किया जा सके। ईशोपनिषद में इस मान्यता का प्रतिपादन हुआ है कि जगत में सर्वत्र एक ही ईश तत्व है यहीं समस्त जगत स्वामी है और ईशा वास्यमिन्द, एकात्मकता एवं समन्वयता का मार्ग प्रशस्त होता है। अथवर्वेद में वर्णित है कि जो औषधीय और वन संपतियों को नष्ट कर पृथ्वी को सताता है उन्हें पृथ्वी स्वयं दंड देती है। यजुर्वेद में प्राकृतिक संसाधनों के संतुलित दोहन पर बल दिया गया है।
यज्ञ के अतिरिक्त अन्य कार्यों के लिए वृक्ष काटना पाप ही नहीं बल्कि महा पाप की श्रेणी में वर्णित है। वाल्मीकि रामायण में पांच महाभूतो में जल, वायु, पृथ्वी, आकाश तथा अंगी के प्रति महती श्रद्धा के दर्शन मिलते हैं। आयोध्य कांड में पर्यावरण के सभी घटकों को सर्वथा स्वच्छ एवं शुद्ध रूप में दर्शाया गया है। महाभारत में वृक्षों को लगाकर उनकी पुत्रों के समान रक्षा करने का विचार किया गया है। मत्स्य पुराण में उल्लेख मिलता है – दशकूपसमा वापी, दशवापीसमो हद:। दशहदसमो पुत्रो , दशपुत्रसमो द्रुम: अर्थात एक जल कुंद दस कुँए के समान है एक तालाव दस जल कुंद के समान है एक पुत्र का दस तालाव जितना महत्त्व है।
मगर दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि भोग विलास एवं स्वार्थ की उपभोक्तावादी संस्कृति ने प्राचीन भारतीय समृद्ध संस्कृति को आज पूरी तरह से शिथिल बना दिया है। पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता में विगत दर्शकों में भारी मात्रा में गिरावट की गई है। पर्यवारण प्रदर्शन सूचकांक -2022 की रैकिंग के अंतर्गत भारत विश्व के निचले पायदान के राष्ट्रों में शामिल है। वहीँ ग्रीन हाउसगैस के उत्सर्जन के मामले में भारत अधिकतम उत्सर्जन करने वाले राष्ट्रों में स्थान रखता है। पर्यावरण के प्रति संवेदनशील एवं उदासीन व्यवहार का परिणाम प्रतिवर्ष आने वाली आपदाओं की आवृति में वृद्धि के रूप में देखा जा सकता है। वर्ष 1990 के बाद से भारत, अमेरिका और चीन के बाद सबसे अधिक प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ा है।
वर्ष 2001 से 2022 तक भारत में 361 छोटी और बड़ी प्राकृतिक आपदाएं दर्ज की गई है। इन आपदाओं के परिणामों को विस्तृत रूप से देखा जा सकता है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की रिपोर्ट के अनुसार प्रत्येक वर्ष मात्र बाढ़ से ही 1600 लोगों की जान चली जाती है। इसके अतिरिक्त भारी मात्रा में आर्थिक हानि भी उठानी पड़ती है। इस वर्ष 2023 हिमाचल प्रदेश में घटित हुई प्राकृतिक आपदा के कारण लगभग 9 हज़ार करोड़ के नुक्सान का अनुमान लगाया गया है। इसलिए समय आ चुका है कि हमें एक बार पुनः अपनी सांस्कृतिक जड़ों की ओर लौटना होगा और हमें यह स्वीकार भी करना होगा कि हमारा अस्तित्व पर्यावरण के साथ संतुलन पर आधारित है। त्यागपूर्ण उपभोग का सन्देश देने वाली संस्कृति के बल पर भारत आपदा न्यूनीकरण के क्षेत्र में विश्व नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता रखता है।