दीप्ति सारस्वत प्रतिमा
अपना खयाल रखना
अपना खूब खयाल रखना
अपनों की मिठास घुली
औपचारिक आवाज़ें
वरिष्ठ नागरिक के
कानों में गूंजती
जब – जब वे
अपने घर में अकेले
तकलीफ़ में होते हुए भी
बनाते जैसे तैसे खाना
रात सोने से पहले
दर्द से कराहते
टांगों बाजुओं में
लगाते मरहम
पीने के लिए
कांपते हाथों,
गर्म करते पानी
अलार्म लगा,
लेते ; वक्त पे दवा।
हर छोटी ज़रूरत के लिए
बड़ी हिम्मत जुटा
आरामदायक बिस्तर छोड़
मजबूरी पर कुढ़ते
हर बार उठते।
पीठ में खुजली
उगने पर अचानक
हाथ न पहुंच पाने पर
बिलबिलाते।
उचट जाए जो नींद, वक्त बेवक्त
बिस्तर पर बगल में
गहरी नींद पसरा सन्नाटा देखते।
कभी सुनाई देती
पहचानी सी आवाज़
खिसिया जाते
ध्यान आते ही कि अकेले में
कान बज रहे।
उकता चुकी बुरी तरह
घर में घूमती
एक जोड़ी उदास सलेटी
टुकुर टुकुर दीवार ताकती आंखे।
लाइट चले जाने पर
टटोल के चलते हुए दीवार पर से
अचानक कोई पपड़ी झड़ती
करती ध्यानाकर्षित
आंखों को खटकता कभी
ठीक सोने से पहले
सीलिंग पर झूलता
मकड़ी का जाला ।
जीभ लपलपाती चिढ़ाती कभी
ट्यूबलाइट के आसपास
चिपकी छिपकली…
टपकता नल बाथरूम का
कई गुणा करता आधी रात में शोर।
झुंझलाहट, बेबसी, गुस्सा, कुढ़न,
याद, तड़प, एकाकीपन
आंखों में उमड़ते हर रात
सब के सब एक साथ
दिन भर दोस्तों की मंडली में
खूब ज़ोरदार ठहाके लगाते
हां सबकी मनुहार पर
वरिष्ठ नागरिक वे
अपना खूब खयाल रखते।