नवनीत कालिया, शिमला
गर्मी के दिन, बालकोनी में बैठा,
तपती धरती को देख रहा था,
जो इस उम्मीद से,
ऊपर आसमां को देख,
अपने अंदर एक आस संजोये,
अपनी प्यास बुझने की उम्मीद मन में में पाले,
अपने शरीर के उन घावों को देख,
तड़प रही थी।
घाव, जो इंसानों ने दिए।
हरियाली के वस्त्रों से वस्त्रहीन करने के घाव।
इंतज़ार में, कि बादल उन घावों पर मरहम लगा,
हरियाली के वस्त्रों से उसके शरीर को ढक कर,
इस निर्लज इंसान की नज़रों से उसे बचा ले।
एक तड़प का एहसास।
नज़र उठी उन बादलों के टुकड़ों पर,
रुई के फाहों के समान,
कहीं पहुचने की कोशिश में,
एक दूसरे से ही प्रतिस्पर्धा करते,
चले जा रहे थे,
धरती की शांत चीख का उत्तर देने।।
कानो में पपीहे की आवाज़,
दूर, किसी बादल के टुकड़े में बिजली की चमक,
एक उम्मीद की किरण।
धरती, मानो मुस्कुरा उठी।
बादल, एक से दो होते,
धरती को गरज के साथ कुछ कहने की कोशिश करते,
कुछ ढाढस बंधाते।
बरसात की वो पहली बूंदे,
धरती की मिट्टी में मिल कर,
सौंधी सी महक, सब तरफ बिखेरकर,
एक खुशी का एहसास कराती।
खुशी, उस महक की,
जिसे महसूस करता मेरा मन,
धरती की खुशी में कहीं खो जाता।
धरती और बादलों का वो संबंध,
अविस्मरणीय।।