लघुकथा का ज़िक्र आते ही ज़ेहन में उस सारगर्भित कहानी का चित्र उभरता है जो अपनी बात सीधे-सीधे बिना किसी विस्तार से, बिना किसी लाग-लपेट के पाठक के समक्ष रखती है अर्थात गागर में सागर, अर्थात कम शब्दों में गहरी बात कह देती है| इस पत्रिका के सम्पादकीय लेख में श्री सुशील कुमार फुल्ल जी ने स्पष्ट किया है कि लाघवता इस का आधारभूत तत्व है| वे आगे खुलासा करते हैं कि लघुकथा का अंत एक झटके के साथ होता हैं| इसी प्रकार पड़ोसी राज्य हरियाणा के लघुकथा के सशक्त हस्ताक्षर श्री कमलेश भारतीय जी का कहना है कि लघुकथा बिजली की कोंध की तरह एकाएक चमकती है, और इसमें जानबूझकर विस्तार नहीं दिया जाना चाहिए| वैसे भी परिवर्तन सृष्टि का नियम है कभी हमारे देश में पांच-छ: घंटे की एक फिल्म बनती थी मगर अब लघु फिल्मों का दौर है|
मेरी उम्र के लोगों ने पांच-पांच दिन तक चलने वाले क्रिकेट मैच भी देखे हैं| और अब पचास या बीस ओवरों का मैच होता है, और यदि कल को पांच या दस ओवरों का मैच आ जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी| साहित्य जगत भी इस नियम का अपवाद नहीं है| कभी हर पढ़े-लिखे व्यक्ति के हाथ में एक पुस्तक होती थी जिसके माध्यम से वह अपने मनपसन्द लेखकों से साक्षात्कार कर लेता था| वक्त बदला, उपन्यास को पूरी तरह से तो नहीं, पर एक हद तक कहानियों ने चुनौती दी, लम्बी कविताओं का स्थान छोटी कविताओं ने ले लिया| फिर एक दिन आज के आधुनिक मानव के हाथ में मोबाइल नाम का यंत्र आ गया और उसके पास यकायक समय पंख लगाकर उड़ गया| साहित्यकार ने भी बदले हुए समीकरणों के मध्य नज़र खुद को रूपांतरित कर लिया उसे लिखना तो अब भी था, मगर अब उसकी बात को समझने के लिए पाठक के पास न तो इतना धैर्य रहा और न ही इतना समय कि वह घंटों बैठकर किसी साहित्यिक पुस्तक का चिंतन-मनन कर सके|
धीरे-धीरे उपन्यास और कहानी के साथ लघु कथा भी कदम से कदम मिलाकर चलने लगी, जो दो लाइनों में भी खत्म हो सकती है और दो ढाई पेजों में भी| पाठक ने इस विधा को हाथों हाथ लिया और आज की तिथि में लघु कथा साहित्य के क्षेत्र में अपना एक विशेष स्थान रखती है| विवेच्य त्रैमासिक पत्रिका रचना के संपादक डा. सुशील कुमार फुल्ल हिंदी साहित्य जगत के चमकते हुए सितारे हैं| मुझे इस पत्रिका का जनवरी-जून 2024 अंक पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जो विशेष रूप से लघु कथा को समर्पित किया गया है| इस अंक में हिमाचल प्रदेश के चुनिंदा लेखकों की अठाईस लघु कथाओं को शामिल किया गया है| इस अंक में शामिल लघुकथाओं में समाज की अलग अलग समस्याओं को उठाया गया है अर्थात प्रत्येक लघु कथा का चुनाव काफी सावधानीपूर्वक किया गया है| शायद ही ऐसा कोई विषय हो जिसे छुआ न गया हो| डा. फुल्ल की यही संपादकीय विशेषता उन्हें असधारण साहित्यकारों की पंक्ति में खड़ा करती है|
यूँ तो इस अंक में शामिल प्रत्येक रचना किसी ने किसी रूप में पाठक को भीतर तक झंझोड़ने में सक्षम है, मगर फिर भी कुछ लघुकथाओं का जिक्र करना आवश्यक है | लेखन की दृष्टि से एक समीक्षक अपनी कलम का गलत इस्तेमाल करके किसी भी उभरते हुए लेखक का लेखकीय जीवन तबाह कर सकता है| इस बात का खुला दस्तावेज है युवा लेखक सौरभ की लघुकथा ‘समीक्षक’| ‘ऋण का धंधा’ एक सशक्त लघु कथा है जिसे हिमाचल प्रदेश के वरिष्ठ साहित्यकार सुदर्शन वशिष्ठ ने लिखा है तथा बड़ी खूबसूरती के साथ ऋण के धंधे में पनपने वाली बुराइयों को उकेरा है| जहां तक मुझे याद पड़ता है यह उनकी प्रथम लघु कथा थी जो कभी सारिका जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित हुई थी| इसी प्रकार इनकी दूसरी ‘लघुकथा, ‘चाय पी लीजिए’ बहुत ही कम शब्दों में गाँव और शहर के अन्तर को स्पष्ट कर देती है|
जब बाड़ ही खेत को खाने लगे तो खेत बेचारा क्या करें, इस मुहावरे को चरितार्थ किया है हिमाचल प्रदेश के वरिष्ठ साहित्यकार कृष्ण देव महादेविया ने अपनी लघुकथा ‘राष्ट्रभाषा’ में| इस कहानी में हमारे देश के वह लोग जो शीर्ष पदों पर विराजमान हैं, जिनका कार्य ही हिंदी का संरक्षण करना है, अपनी निजी जिंदगी में हिंदी का एक शब्द तक नहीं सुनना चाहते| ऐसे में हिंदी का भविष्य पूर्ण रूप से अंधकारमय है और यही लेखक की चिंता भी है| इनकी दूसरी लघुकथा, ‘अभिवादन’ का सन्देश भी बड़ा स्पष्ट है कि जिस दिन किसान अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो जाएगा, उस दिन केवल जाति के नाम पर स्वयं को श्रेष्ठ समझने वालों को खाने-पीने के लाले पड़ जाएंगे| अध्यात्मिक चेतना से सराबोर कथाकार एवं कवियित्री सुमन शेखर की लघुकथा, ‘सुरक्षा’ इस बात का संकेत है कि हमारे देश में जहां हम सदियों से रामराज्य की कल्पना करते आएं हैं, वहां आज भी एक अकेली औरत का जीवन कितना असुरक्षित है|
वरिष्ठ साहित्यकार जगदीश कपूर ने बड़े ही सुंदर ढंग से अपनी लघुकथा, ‘दंत मुक्ति’ में इस बात का जिक्र किया है कि आज की तिथि में बुजुर्गों की स्थिति बहुत ही दयनीय है क्योंकि युवा पीढ़ी अपनी-अपनी दुनिया में इस कद्र उलझी हुई है कि उनके पास बुजुर्गो के लिए समय ही नहीं है और वे जीवन की सांध्य-वेला में अकेले रह गए हैं| यदि मां-बाप अपने जीवन में अत्यधिक मेहनत करते हैं तो वह अपने लिए नहीं, अपितु अपने बच्चों की बेहतरीन जिंदगी के लिए करते हैं| इस तथ्य का खुलासा किया है वरिष्ठ साहित्यकार अदित कंसल ने अपनी लघुकथा ‘बस्ता’ के माध्यम से| इसी प्रकार उनकी दूसरी कहानी ‘सच्ची श्रद्धांजलि’ का सार भी यही है कि मां-बाप की असली प्रसन्नता तो संतान के आगे बढ़ने में ही है| जब कोई व्यक्ति अपनी सीमाएं लांघ कर अमर्यादित आचरण करता है तो उसे सबक सिखाना जरूरी है|
इस बात को बड़े ही नाटकीय अंदाज में प्रस्तुत किया है प्रख्यात पत्रकार एवं लेखक हरिराम धीमान ने अपनी लघुकथा ‘नंबरदार की बहू’ में| ‘लूट सके तो लूट’ वरिष्ठ साहित्यकार त्रिलोक मेहरा की एक सशक्त लघुकथा हैं, जिसमे उन्होंने बड़े ही सुंदर तरीके से यह स्पष्ट कर दिया है कि सरकार द्वारा मुफ्त में दी जाने वाली चीज़ें कभी हमारा भला नहीं कर सकती| क्योंकि मुफ्त में मिलने वाली चीज़ें समाज को निकम्मा बना देती हैं| जो लोग हर समय जनहित की वकालत करते हैं, मौका मिलने पर वही लोग जनहित को दरकिनार कर स्वार्थसिद्धि में जुट जाते हैं| इस मर्म को बखूबी उजागर किया है हिमाचल प्रदेश के जाने-माने साहित्यकार एवं इस पत्रिका के संपादक डा. सुशील कुमार फुल्ल ने, अपनी सारगर्भित लघुकथा, ‘जनहित’ के माध्यम से|
लघुकथा ‘चोट’ में वे खुलासा करते है कि आज का मतदाता काफी जागरूक हो गया है और मौका मिलने पर वह अपने मत का प्रयोग करना भी जानता है| एक अन्य लघुकथा ‘बधाई’ भी सटीक सन्देश लिए हुए है कि आप समाज के साथ जैसा करोगे, समाज भी बदले में वैसा ही करेगा, अर्थात जो बीजोगे, वही काटोगे| यह कहना बड़ा ही आसान है कि लड़के वाले लड़की वालों पर जुर्म करते हैं, बात-बात में वधु-पक्ष का शोषण करते हैं| मगर कई बार लड़कियां भी कम नहीं होती| अधिकतर मामलों में, भले ही गलती लड़की की हो, लड़के को ही कसूरवार माना जाता है| मगर यदि समाज थोड़ी सी सावधानी और न्यायसंगत दृष्टि से देखे तो परिणाम कुछ और ही होंगे| बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार यादव किशोर गौतम द्वारा लिखी गई कहानी ‘रिकॉर्डिंग’ इसी भाव को पोषित करती है|
‘निहारती मां’ वरिष्ठ कवियित्री एवं कहानीकार डा. सुदर्शना भटेड़िया द्वारा रचित एक मार्मिक लघु कथा है जिसमें आखिरी सांसें लेती हुई अपनी मां से एक बेटा इसलिए नहीं मिल पाता कि उसे माँ से मिलने के लिए नदी को पार करना है| मगर बाढ़ के कारण नदी पानी से लबालब भरी हुई है| लेखक ने भावनाओं के साथ-साथ एक पुल के महत्व को भी दर्शाया है| आज की दुनिया पूर्ण रूप से स्वार्थ पर टिकी हुई है| प्रेम, भाईचारा, अपनत्व तथा मित्रता आदि शब्द तो जैसे पंख लगाकर उड़ गए हैं| लोग आपका इंतजार इसलिए नहीं करते कि उन्हें आपके साथ बहुत प्रेम है, अपितु इसलिए करते हैं कि आपका मिलना उनके स्वार्थपूर्ति का एक साधन है| जिस दिन यह स्वार्थ पूरा हो जाता है, उस दिन आपकी कीमत भी शून्य हो जाती है| वरिष्ठ साहित्यकार अरविंद ठाकुर की कहानी, ‘फौजी का इंतजार’ इस बात का मार्मिक दस्तावेज है|
‘डिजिटल इंडिया’ युवा साहित्यकार प्रमोद हर्ष द्वारा लिखी गई एक मार्मिक लघु कथा है| कार्यलयी कामकाज तथा डिजिटल क्रांति में संवेदनाओं, भावनाओं तथा मानवता का कोई स्थान नहीं है| अगर आपका डाटा या हस्ताक्षर कंप्यूटर में भरे गए प्रोग्राम के साथ मेल नहीं खाते तो आपका कोई काम नहीं हो सकता| फिर चाहे आप कितने ही योग्य, ईमानदार या जरुरतमन्द क्यों न हो? हर्ष की दूसरी लघुकथा, ‘एडमिशन’ भी बुजुर्गों की दयनीय स्थिति को प्रकट करते हुई समाज के दोहरे मापडंडों पर करारा व्यंग्य है| कई बार हम असमय ही अपने को खो देते हैं|
उन्हें खोने का दुख तो जीवन भर सालता ही रहता है, मगर जीवन में यदि हम अपने दुख भूल कर समाज को अपना गले लगा ले तो जीवन में मधुर संगीत वापस आ सकता है| इसी बात का खुलासा किया है लेखिका रक्षा सरोच ने लघुकथा ‘जीवन का संगीत’ के माध्यम से| निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि डा. फुल्ल द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका रचना के लघु कथा विशेषांक में बहुत ही सार्थक, सटीक व स्तरीय लघुकथाओं को शामिल किया गया है, जिसके लिए डा. फुल्ल के साथ साथ प्रत्येक लेखक बधाई का पात्र है| पत्रिका के सम्पादक डा. सुशील कुमार फुल्ल व उनकी टीम को बहुत-बहुत साधुवाद|
पत्रिका का नाम: ‘रचना’ (लघु कथा विशेषांक)
संपादक : डा. सुशील कुमार फुल्ल
प्रकाशक : रचना साहित्य एवं कला मंच पालमपुर
हिमाचल प्रदेश 176067
सहयोग वार्षिक : 500 रूपये