आज हम स्वतंत्रता से अपने देश में कहीं भी आ जा सकते हैं, कहीं भी परिवार दोस्त मित्रों से साथ घूम फिर सकते हैं, जब कि 15 अगस्त, 1947 से पूर्व अंग्रेजों के शासनकाल में ऐसा बिल्कुल नहीं था। अंग्रेजों के अपने विशेष अधिकार थे, जहां जहां उनका आना जाना रहता था वहां आम लोग नहीं जा सकते थे। बड़े बड़े संस्थान, होटल, प्रथम श्रेणी के स्थल, रेल आदि में नहीं बैठ सकते थे क्योंकि इन सभी के लिए केवल गौरे अंग्रेजों का ही अधिकार होता था। देश अंग्रेजों के अधीन था और यहां के लोग गुलामों जैसा जीवन जी रहे थे।
लेकिन यहां के नौजवानों से यह सब सहन नहीं हो पा रहा था, उनमें इतनी चेतना जागृत हो चुकी थी कि वे मातृ भूमि की खातिर मरने मारने से भी नहीं घबराते थे। उस समय के बालकों के संस्कार की कुछ ऐसे थे कि देश और धर्म के लिए मर मिटते थे। गुरु गोविंद सिंह के छोटे छोटे बेटे व वीर हकीकत राय अपने धर्म के लिए ही तो मर मिटे थे। इधर यदि आज के नौजवानों को देखे तो हमारा सिर शर्म से झुक जाता है (इनको चिट्टे के नशे में देख कर) । वह भी समय था जब 20-20 व 25 बरस के बच्चे हंसते हंसते देश की खातिर फांसी पर चढ़ जाते थे।
आज उन्हीं क्रांतिकारी वीर शहीदों में से जिस शहीद के बारे आपको रूबरू करने जा रहा हूं, वह तो मात्र 25 वर्ष की आयु में ही देश की खातिर फांसी पर लटक गया था। वह था अमृतसर के संपन्न हिन्दू खत्री परिवार से संबंध रखने वाला वीर क्रांतिकारी मदन लाल ढींगरा। अपने माता पिता के 7 भाईयों व एक बहिन वाले परिवार में वही सबसे अलग विचारधारा वाला अकेला था। इस सम्पन्न परिवार के सभी बच्चों की शिक्षा दीक्षा विदेश में ही हुई थी। क्योंकि पिता डॉक्टर दित्ता मल ढींगरा उस समय अमृतसर के जाने माने सर्जन थे और उनकी पहुंच बड़े बड़े अंग्रेज अधिकारियों तक थी, क्योंकि पिता सहित परिवार के सभी सदस्य (सिवाय मदन लाल के) अंग्रेजों की जी हजूरी में सबसे आगे थे। 18 सितंबर, 1883 को अमृतसर में ही माता भवानी देवी व पिता डॉक्टर दित्ता मल के यहां मदन लाल का जन्म हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा अमृतसर में ही हुई थीं, जिसमें इन्होंने एम बी इंटरमीडिएट कॉलेज की पढ़ाई करने के पश्चात वर्ष 1900 से आगे एम. ए. की शिक्षा के लिए ये लाहौर गवर्नमेंट कॉलेज में दाखिल हो गए थे। उस समय लाहौर क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए विशेष महत्व रखता था। जगह जगह के क्रांतिकारी यहीं पहुंचे थे और आगे की योजनाएं आपस में मिल कर बनाई जाती थीं। मदन लाल ढींगरा ने भी अपने अध्ययन के अंतर्गत भारतीय गरीबी के कारणों को जानते हुए पाया कि इन सब के पीछे ब्रिटिशों का ही हाथ है और वही इसके लिए जिम्मेवार हैं। क्योंकि यहां के बाजारों में मनमाने दामों पर विदेशी माल को ही बेचने में प्राथमिकता दी जाती थी और स्वदेशी समान की अनदेखी की जाती थी। जिससे यहां के कारीगर सामान की लागत न होने के कारण बेकार हो गए थे। इन सभी बातों के फलस्वरूप ही मदन लाल ढींगरा विदेशी आंदोलन व इसके बहिष्कार तथा स्वराज की मांग जैसे मुद्दों में आगे रहने लगा था। भारतीय उद्योग व उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिए लोगों को प्रेरित करते हुए उन्हें स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा भी बनाने लगा था। वर्ष 1904 में जब कॉलेज में उसे ब्लेजर के लिए विदेशी कपड़े के लिए कहा गया तो मदन लाल ढींगरा ने उसका विरोध किया, जिसके लिए उसे कॉलेज से निकल दिया गया। इसके लिए उसके पिता दित्ता मल बहुत नाराज़ भी हुए तथा उसे माफी मांगने को कहा गया, लेकिन मदन लाल माफी मांगने को तैयार नहीं हुआ बल्कि वह अपनी पढ़ाई व घर छोड़ कर रोजी रोटी की तलाश में कालका शिमला के पास कहीं क्लर्क की नौकरी करने लगा। कुछ समय पश्चात क्लर्क के कार्य को छोड़ कर, वह किसी कारखाने में मजदूरी करते हुए वहीं मजदूरों का नेता बन कर वहां मजदूर यूनियन खड़ी कर दी, जिस पर यहां से भी उसे निकल दिया गया। फिर मदन लाल यहीं से बंबई जा पहुंचा और काम के लिए दौड़ धूप करने लगा, इसी मध्य इसके सके बड़े भाई डॉक्टर बिहारी लाल ने इसे प्रेरित करके विदेश में पढ़ाई करने के लिए राजी कर लिया और इस तरह वर्ष 1906 में मैकेनिकल इंजीनियरिंग करने के लिए (यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में) वहां दाखिल हो गया। वहीं पर श्यामजी कृष्ण वर्मा का भारतीय भवन भी था, जहां पर भारतीय विद्यार्थी सस्ते में रहते, खाते पीते और अपने देश संबंधी क्रांतिकारी गतिविधियों की चर्चा भी किया करते थे। मदन लाल ढींगरा भी भारतीय होने के नाते उधरआने जाने लगा था। यहीं पर ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा निर्दोष भारतीयों पर किए जाने वाले अत्याचारों की चर्चा के साथ ही साथ दोषियों के लिए, उनकी हत्या की योजनाएं भी बनाई जाती थीं। यहीं पर कर्नल वायाली की हत्या की योजना मदन लाल ढींगरा द्वारा तैयार की गई थी। वायाली की हत्या से पूर्व भारत के पूर्व वायसराय लॉर्ड कर्जन को भी मारने की कोशिश की गई थी। इससे भी पूर्व बंगाल के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर बम्पफील्ड फुलर की हत्या की योजना थी, लेकिन दोनों बार सफलता नहीं मिली क्योंकि समय पर दोनों बैठक में वे नहीं पहुंचे थे। वायली जो कि भारत में कई उच्च पदों पर रह चुके थे और जिस समय वे भारत में पुलिस प्रमुख थे तो उस समय मदन लाल ढींगरा व उसके साथियों की गुप्त सूचनाएं भी यही एकत्र कर रहे थे। इसी लिए मदन लाल ढींगरा ने खुद ही इसको मारने का फैसला कर लिया था।
प्रथम जुलाई, 1909 को जिस समय इंपीरियल इंस्टीट्यूट में इंडियन नेशनल एसोसिएशन का वार्षिक समारोह हो रहा था और कर्नल वायली अपनी पत्नी के साथ बाहर निकल रहे थे तो उसी समय मदन लाल ढींगरा द्वारा 5 गोलियां उन पर दाग दीं गई, जिनमें से 4 तो ठीक निशाने पे लग गई, इसी मध्य बीच बचाव के लिए डॉ. लाल काका आ गए तो ढींगरा ने छठी गोली दाग दी, जिससे डॉ. लाल काका भी मारा गया। पुलिस ने मदन लाल ढींगरा को उसी समय गिरफ्तार कर लिया। 23जुलाई, 1909 को ओल्ड बेली में मदन लाल ढींगरा पर मुकदमा चलाया गया और उसे मौत की सजा सुना दी गई।
सजा मिलने पर ढींगरा ने कहा था, “मुझे अपने देश पर, अपना जीवन दे कर, सम्मान पाने का गर्व है, आने वाले दिनों में हमारा भी समय आएगा!” 17 अगस्त, 1909 को वीर मदन लाल ढींगरा को पेंटनविले जेल में फांसी पर लटका दिया गया। फांसी लगने से पूर्व मदन लाल ने कहा था, “मैं अपने बचाव के लिए कुछ नहीं चाहता, बस अपने इस कार्य की निष्पक्षता सिद्ध करना चाहता हूं। मुझे किसी भी अंग्रेजी अदालत को गिरफ्तार करने, जेल में बंद करने या मौत की सजा देने का अधिकार नहीं है और अंग्रेजों को भारत पर कब्जा करने का भी कोई अधिकार नहीं है।”
मदन लाल ढींगरा ने यह भी कहा था कि मैं ये बयान बाहरी दुनिया को, विशेषकर अमेरिका व जर्मनी जैसे हमारे समर्थकों को, अपने मामले को न्यायसंगत दिखाने के लिए दे रहा हूं। इसी प्रकार मदन लाल ढींगरा ने न्यायधीश का आभार प्रकट करते हुए कहा था, ” धन्यवाद, मेरे प्रभु ! मुझे परवाह नहीं है, मुझे अपनी मातृभूमि के लिए अपना जीवन न्योछावर करने का सम्मान व गर्व है!”
महान वीर क्रांतिकारी के पावन (पार्थिव) शरीर को अंग्रेजों द्वारा दफना दिया गया। क्योंकि अंग्रेजों के पिट्ठू उसके परिवार वालों ने, उसे लेने से इनकार कर दिया था। महान वीर क्रांतिकारी मदन लाल ढींगरा के इस तरह देश के लिए कुर्बान हाने पर, शहीद भगत सिंह व शहीद चंद्र शेखर आजाद ने भी, उसी दिन से अंग्रेजों से बदला लेने को ठान लिया था और समय आने पर उन्होंने बुरी तरह से अंग्रेजों की न भी करवा दी थी।
वर्ष 1992 में भारतीय डाक तार विभाग द्वारा क्रांतिकारी शहीद मदन लाल ढींगरा की याद में एक रुपए का टिकट भी जारी किया गया था। स्वतंत्रता के कुछ समय पश्चात आखिर 13 सितंबर, 1976 को शहीद मदन लाल ढींगरा के अवशेषों को भारत लाया गया और उन्हें विधिवत रूप से पवित्र तीर्थों में प्रवाहित कर दिया गया। देश की स्वतंत्रता हेतु अपनी जवानी में ही शहीद होने वाले शहीदों को हमारी शत शत नमन, जिनकी कुर्बानी से ही हम आज स्वतंत्र भारत में सांस ले रहे हैं। हमारे कई नौजवान साथी इस स्वतंत्रता का अनुचित लाभ उठाते हुए आज चिट्ठे के नशे, के प्रवाह में बहे जा रहे हैं, उन सभी को जागृत हो व नशे को त्याग कर अपने इन शहीदों की तरह देश के विकास के लिए आगे आना होगा, तभी हम उन शहीदों की कुर्बानी का मान सम्मान वास्तव में कर पाएंगे।