हिमाचल की प्राचीन रियासतों में कुल्लू जनपद अपनी लोक संस्कृति ,पौराणिक देवी देवताओं व ऋषिमुनियों से संबंधित होने के कारण ही अति प्राचीन जनपद जान पड़ता है। इस जनपद के अति प्राचीन होने की जानकारी हमें अपने पौराणिक साहित्य व अन्य प्राचीन ग्रंथों से भी हो जाती है।प्राचीन पौराणिक साहित्य में कुल्लू के लिए कुलूत शब्द का प्रयोग मिलता है। इसीलिए इसे प्रागैतिहासिक युग के जनपद से भी जोड़ा जाता है। जिसकी पुष्टि यहां प्रचलित देवी देवताओं की भारथाओं को सुनने से भी हो जाती है। हिमालय की इस पवित्र भूमि पर आदि काल से ही कई एक देव यौगिक जातियां ,जिनमें असुर,नाग, दानव,गंधर्व,अप्सराएं,भूत पिशाच व सिद्ध आदि आ जाते हैं और ये सभी जातियां यहीं निवास करती थीं।
जिनके सांस्कृतिक अवशेष आज भी कुल्लू की मिश्रित संस्कृति में देखने को कहीं न कहीं मिल ही जाते हैं। कुल्लू की संस्कृति में इसके मेलों, तीज ,त्यौहारों व उत्सवों का अपना विशेष स्थान व पहचान है। इन्हीं मेले त्यौहारों और उत्सवों को यहां पर ग्रामीण स्तर से लेकर राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक मनाते हुवे देखा जा सकता है। अंतराष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने वाला यहां का उत्सव रूपी दशहरा मेला तो आज कुल्लू की विशेष पहचान बन गया है। इसी दशहरे को कुल्लू की स्थानीय भाषा में विदा दसमीं ( विजय दशमी)के नाम से जाना जाता है। दशहरे का यह उत्सव कुल्लू में उस दिन से शुरू होता है ,जब की देश के अन्य भागों में दशहरा समाप्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त यहां रावण आदि के पुतलों को नहीं जलाया जाता, हां लंका दहन का कार्यक्रम जरूर किया जाता है।
दशहरे का चलन कुल्लू में कब व कैसे हुआ ?इसका भी अपना एक लंबा इतिहास है। प्रचलित जनश्रुतियों अनुसार बताया जाता है कि कुल्लू के राजा जगत सिंह के समय ,किसी ने राजा के कान में झूठ में ही यह बात डाल दी ,कि मणिकर्ण के टिपरी गांव के पंडित दुर्गा दास के पास एक पाथा,(लगभग डेढ़दो सेर) सुच्चे मोती हैं। फलस्वरूप राजा के मन में पंडित दुर्गा दास से मोती प्राप्त करने की चाहत जागृत हो गई और उसने(राजा ने) अपना संदेश वाहक पंडित के पास भेज कर,उसे मोती देने को कहा। लेकिन पंडित के पास तो कोई भी मोती नहीं थे,इसलिए संदेश वाहक खाली हाथ राजा के पास पहुंचा और सारी जानकारी राजा को दे दी। इसके पश्चात राजा ने अपना संदेश पंडित के पास फिर भेजा कि मैं(राजा)खुद मणिकर्ण पहुंच कर तुम से मोती ले लूंगा।
गरीब पंडित राजा के बार बार के संदेशों से तंग पड़ गया और फिर उसने अपने परिवार सहित घर को आग लगा कर आत्मदाह कर लिया। कहा जाता है कि पंडित व परिवार द्वारा इस तरह से आत्मदाह के फलस्वरूप ही राजा जगत सिंह को ब्रह्म हत्या का दोष लग गया और वह कुष्ठ रोग से ग्रस्त हो गया। ऐसा भी बताया जाता है कि राजा जब भी भोजन करने लगता तो उसे भोजन में कीड़े ही कीड़े नजर आते।जब पानी पीने लगता तो उसे खून नजर आता। इस तरह राजा निराश रहने लगा और अपने इस दोष से मुक्त होने के लिए तरह तरह के उपाय करके भी वह थक चुका था। आखिर में राजा ने अपने पुराने पुरोहित किशन दास से इस संबंध में चर्चा की तो उसने राजा को दोषमुक्त होने के लिए अयोध्या से भगवान रघुनाथ की प्रतिमा लाने के लिए कह दिया। पुरोहित ने ही फिर अपने एक शिष्य दामोदर दास को इस कार्य के लिए अयोध्या भेज कर भगवान रघुनाथ की मूर्ति मंगवा ली।
लेकिन इसी कार्य के मध्य ही जब दामोदर दास ने मूर्ति को अयोध्या से चुराया तो उसी समय अयोध्या मंदिर के पंडित जोधवार ने उसे पकड़ लिया और प्रतिमा को दामोदर दास से छुड़ाने का प्रयास करने लगा ,लेकिन वह प्रतिमा को नहीं छुड़ा पाया और इस तरह से दामोदर दास द्वारा प्रतिमा ठीक ठाक कुल्लू पहुंचा दी गईं।ऐसा भी बताया जाता है कि प्रतिमा को कुल्लू में पहुंचने से पूर्व ,इसे मणिकर्ण, हरीपुर , वशिष्ठ व ग्राहण गांव में भी गुप्त रूप से रखा गया ताकि प्रतिमा की किसी को भनक न लग जाए। आज भी वशिष्ठ,मणिकर्ण व अन्य स्थानों में भगवान रघुनाथ जी के बने मंदिर वहां देखे जा सकते हैं और इन स्थानों पर भी दशहरे का त्यौहार ऐसे ही मनाया जाता है।
इस तरह से प्रतिमा के कुल्लू पहुंचने पर राजा जगत सिंह ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन करके अपना राजपाठ भगवान रघुनाथ जी को समर्पित कर दिया था और खुद सेवक के रूप में रहने लगे थे।ऐसा भी बताया जाता है कि हत्या से मुक्ति पाने के पश्चात प्रतिमा की विधिवत स्थापना माग मास की 5 तारीख वाले दिन 1660 . ई. को की गई थी। इसके पश्चात ही 1661 ईस्वी में ढाल पुर मैदान (काठागली झाड़)में दशहरे की परंपरा शुरू हो गई।यही परंपरा शुरू शुरू में हरीपुर,मणिकर्ण,वशिष्ठ व जगत सुख (जहां जहां पहले भगवान रघुनाथ जी की प्रतिमा रखी गई थी)में दशहरे के रूप की जाती है और आज भी जारी है। कुल्लू में दशहरा शुरू होने से पूर्व सबसे पहले राजपरिवार द्वारा देवी हिडिंबा की पूजा अर्चना की जाती है।देवी पूजन के पश्चात राजमहल से भगवान रघुनाथ जी की शोभा यात्रा निकलती है । शोभा यात्रा में देवी हिडिंबा के साथ ही साथ अन्य देवी देवताओं के रथ भी शामिल होते हैं।
शोभा यात्रा के ढालपुर पहुंचे पर सबसे पहले रघुनाथ जी की प्रतिमा को लकड़ी के बने बड़े से रथ में रखा जाता है।इसके पश्चात रथ को जनसमूह द्वारा रस्सों को पकड़ कर ढालपुर मैदान के मध्य तक खीज कर ले जाते हैं। यहीं पर पहले से बनाए गए शिविर में रघुनाथ जी की प्रतिमा को रख दिया जाता है। इस सारे कार्यक्रम को ठाकुर निकलना कहा जाता है। दशहरे का छठा दिन मुहल्ला के नाम से जाना जाता है और इस दिन सभी देवी देवता अपनी उपस्थिति भगवान रघुनाथ जी के यहां देते हैं। अंतिम दिन भगवान रघुनाथ जी को फिर से उसी लकड़ी वाले रथ में रख कर फिर से मैदान के दूसरे छोर पर ले आते हैं। इसी के साथ ही साथ नीचे ब्यास नदी के किनारे जहां पर घास फूस व लकड़ियों का ढेर लगा होता है उसे आग लगा दी जाती है और वहीं पर पांच पशुओं की बलि भी दे दी जाती है ,इस समस्त रस्म को लंका दहन कहा जाता है।
इसके पश्चात फिर भगवान राघुनाथ जी के रथ को खीच कर मैदान के पहले वाले स्थान में ले आते हैं।फिर उसी पालकी द्वारा रघुनाथ जी को वापिस राजमहल मंदिर में पहुंचा दिया जाता है।इसके साथ ही साथ दशहरा मेले में पहुंचे सभी देवी देवता अपने अपने रथों में वापिस अपने अपने गांव की ओर प्रस्थान करना शुरू कर देते हैं। कुल्लू का दशहरा जो कि अपनी इस देव संस्कृति के लिए विशेष रूप से जाना जाता है,में दिन के समय मनोरंजन के लिए विभिन्न प्रकार के खेलों,प्रदर्शनियों के आयोजन(सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा )के साथ ही साथ देश के विभिन्न भागों से आए साजो सामान व सजावट की वस्तुओं की खूब बिक्री होती है।वहीं रात्रि के समय कला केंद्र में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अंतर्गत प्रदेश व देश विदेश से आए कलाकारों द्वारा सांस्कृतिक कार्यकर्मों का आयोजन किया जाता है जो कि दशहरे में आए लोगों के लिए एक विशेष व महत्वपूर्ण कार्यक्रम होता है।