सत युग से लेकर कली युग तक जिस महान वास्तु व शिल्पकार का नाम बड़े ही मान सम्मान से लिया जाता है, वह ओर कोई नहीं बल्कि हमारे महान उच्चकोटी के वास्तुकार भगवान विश्वकर्मा जी ही रहे हैं। जिनकी वास्तु व शिल्पकला हमें हर युग में देखने को मिल जाती है। तभी तो इन्हें सृष्टि निर्माता भी कहा जाता है। कई एक पौराणिक कथाओं से पता चलता है कि सृष्टि के निर्माण के समय, भगवान विश्वकर्मा देव ब्रह्मा जी के सहायक व सलाहकार थे।
इन्हें कहीं तो देव ब्रह्मा का पुत्र बताया जाता है तो कहीं पड़पौत्र। इनका जन्म कन्या संक्रांति के दिन हुआ था, अर्थात जिस दिन सूर्य कन्या राशि में गोचर करता है। कहीं कहीं इनका जन्म आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा भी बताते हैं। वास्तव में देव ब्रह्मा के पुत्र धर्म, धर्म के पुत्र वास्तु और फिर वास्तु व माता अंगिरसी के सातवें पुत्र विश्वकर्मा हुए बताए जाते हैं जो कि शिल्पशास्त्र व वास्तुशास्त्र में अपने पिता की भांति ही माहिर थे।
यदि विश्वकर्मा जी की कलाकारी की ओर ध्यान दिया जाए तो इनकी वास्तुकला व शिल्पकला के प्रमाण हमें सत युग से ही मिलने शुरू हो जाते हैं और कलियुग तक की कई एक वास्तु कृतियां आज भी देखी सुनी जाती हैं। बताया जाता है कि स्वर्ग लोक, (सत युग में), द्वारिका व सुदामापुरी (द्वापर में), लंका पुरी (त्रेता युग में ), इंद्रप्रस्थ, हस्तिनापुर (कलियुग में), इनके द्वारा निर्मित किए गए थे। इसी तरह से कई एक पुराने शहरों की राजधानियां भी इन्हीं के द्वारा बनाई बताई जाती है। देवी देवताओं के रथ, उनके सभी तरह के अस्त्र शस्त्र भी वास्तुकार भगवान विश्वकर्मा द्वारा ही बनाए बताए जाते हैं। जो कि उस समय की पौराणिक कथाओं में वर्णित है। एक कथा के अनुसार, कहते हैं कि भगवान विश्वकर्मा ने अपनी बेटी संजना व विवाह सूर्य देव से करवाया था। लेकिन सूर्य के तेज व प्रकाश को संजना सहन नहीं कर पाई और वह वापिस अपने पिता के घर लौट आई, तथा उसने अपनी व्यथा पिता विश्वकर्मा को कह सुनाई। भगवान विश्वकर्मा ने बेटी को वापिस ससुराल तो भेजना ही था। जिसके लिए उन्होंने सूर्य की समस्त ऊर्जा व तेज ले कर, उससे भगवान विष्णु के लिए सुदर्शन चक्र का, व भगवान शिव के लिए त्रिशूल का निर्माण कर व सूर्य को शांत करके, बेटी संजना को सकुशल वापिस पति सूर्य के पास भेज दिया। भगवान विष्णु ने बाद में उसी सुदर्शन चक्र से कई एक शत्रुओं का काम तमाम किया था।
भगवान विश्वकर्मा के जन्मदिन के शुभ अवसर पर अर्थात कन्या संक्रांति को पूजा अर्चना के साथ ही साथ व्रत भी रखा जाता है, क्योंकि भगवान विश्वकर्मा जी श्रम व सभी तरह के पारिश्रमिक यंत्रों के लिए समर्पित हैं। इनके पूजा पाठ व व्रत से सभी तरह के पारिवारिक सुखों के साथ शांति, सम्पन्नता, कारोबार में वृद्धि, पारिवारिक संबंधों में मेल मिलाप, एकता व जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आता है। पूजा पाठ व व्रत के लिए सबसे पहले ब्रह्ममुहुर्त में स्नान करना चाहिए, फिर पूजा स्थल व अपने संस्थान/दुकान/औद्योगिक इकाई, कार्यशाला, यंत्रों, कल पुर्जों आदि की अच्छी तरह से साफ सफाई, गंगा जल के छिड़काव के साथ की जानी चाहिए। इसके पश्चात धूप बाती के साथ पूजा पाठ व व्रत करना चाहिए। इस दिन किसी भी प्रकार का कार्य अपने यंत्रों के साथ नहीं करना चाहिए और न ही किसी मादक पदार्थ का सेवन करना चाहिए। ऐसा बताया जाता है कि इस दिन भगवान विश्वकर्मा के पांचों पुत्रों (मनु, मय,त्वष्टा,शिल्पी व दैवज्ञ) की संतानों द्वारा भगवान विश्वकर्मा के जन्म को कन्या संक्रांति के दिन, खूब मनाया जाता है। जिनमें समस्त विश्व के निर्माता, वास्तुकार, कारीगर, शिल्पकार, इंजीनियर्स, वेल्डर, तकनीशियन, लुहार, सुनार, बढ़ई आदि सभी शामिल रहते हैं।
भगवान विश्वकर्मा की पूजा अर्चना व व्रत के महत्व संबंधी जानकारी एक अन्य पौराणिक कथा से भी हो जाती है। कहते हैं किसी समय काशी में एक अच्छा रथकार हुआ करता था, जो कि अच्छा कारीगर भी था। वह अक्सर रोजगार के लिए, एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता रहता था, परिश्रम भी बहुत करता था लेकिन पैसे की हमेशा ही उसके पास कमी ही रहती थी। जिस कारण उसके खान पान की व्यवस्था ठीक से नहीं चल पा रही थी। फिर कोई संतान न होने के कारण उसकी पत्नी और भी चिंतित रहती थी। कई जगह साधु संतों के पास भी दोनों गए, लेकिन कुछ नहीं बना। एक दिन रथकार के पड़ोसी ब्राह्मण नेउन्हें भगवान विश्वकर्मा की शरण में जाने व अमावस्या का व्रत, कन्या संक्रांति को करने के लिए कहा। रथकार और उसकी पत्नी ने ब्राह्मण के कहेनुसार कन्या संक्रांति के दिन वैसे ही पूजा पाठ के साथ व्रत किया और शीघ्र ही उनकी आर्थिक स्थिति में भी सुधार आ गया और संतान की भी भगवान विश्वकर्मा की कृपा से प्राप्ति हो गई। तो ऐसे हैं हमारे भगवान विश्वकर्मा जो कि सभी की मनोकामनाओं की पूर्ति करते है।