ये समस्या है ,
सब को ठन रही है
समझता है हर कोई
उलझन बड़ रही है,
सिसकता रोता
आंसू बहता ,
बेचारा पर्यावरण हमारा !
नंग धड़ंग
उजड़े जंगल,
चिल्ला रहे हैं,
कहरा रही है
प्यासी धरती ,
नदी नाले सभी बेचारे
किनारे अपने छोड़ चले हैं !
अंधी बाढ़ ने जो लपेटे
घर डंगर सब हैं डूबे ,
कहीं तकनीकी से बनी
बड़ी छोटी मशीने ,
भयंकर शोर मचा रही हैं !
सब बहरे हो के
कान बंद कर रहे हैं !
उठता हुआ धुंआ भी,
किरदार खूब निभा रहा है,
लगे ढेर गंदगी के,
बू दूर तक फैला रहे हैं !
अभी भी समय है
समझ संबल ले बंदे,
सब चौकस कर रहे तुम्हें !
है देरी अब
क्यों और कैसी,
दो चार पेड़
तू भी लगा के,
बचा ले खुद और
अपने पर्यावरण को !