अशोक दर्द
हाशिए पर खड़ा आदमी,
धूप मे झुलस जाता है मूक होकर,
क्योंकि यह सूरज के खिलाफ विद्रोह करना नहीं जानता,
यह हवा के खिलाफ,
बगावत नहीं करना चाहता,
क्योंकि इसे हवा का न तो रुख भांपना आता है,
और न ही हवा के साथ-साथ चलना,
हाशिए पर खड़ा आदमी,
इतना भोला है कि,
आज भी बरसने और गरजने वाले बादलों में,
फर्क नहीं कर पाता और हर बार ठगा जाता है,
यह इतना निहत्था है कि इससे,
सभी हथियार छीन लिए गए हैं,
ताकि यह कभी सत्ता के खिलाफ,
विद्रोह न कर सके,
प्रलोभनों की प्रवंचना और यथार्थ की इबारत के बीच,
खिंची महीन रेखा इसे,
न तो पढ़नी आती है और न ही बांचनी,
इसलिए हर बार इसके हिस्से,
भूख लिख दी जाती है,
हर चक्रव्यूह इसके आसपास ही रचा जाता है,
और हर बार बड़े-बड़े बैनरों नारों के बीच,
इसका ही बध हो जाता है,
यह न आंकड़ों का गणित जानता है,
न ही भाषणों की प्रवंचना,
और हर बार इसी वजह से,
नारों की बयार में बह जाता है,
सदियों से यही सब नियति रही है,
हाशिये पर खड़े आदमी की ।
nice poem