
शांत गहर गंभीर
समाई सी गहराई लिए
शीतल निर्मल जल के संग
उद्गम से निकल
बह जाती है
मंद मंद गति से !
नदी
पहाड़ों से उतरती
चीरती सीना चट्टानों का
डरावनी (रौद्र) लगती
भागे जाती दहाड़ती
समेटे जाती साथ सब कुछ
अपनी विनाशकारी तबाही में !
नदी
गिरती हांफती पहुंचती
पसार जाती मैदानों तक
दूर तक फैलाई बाहों में
चंचल सी मतवाली लगती
बलखाती मिट्टी धूल चूमती
ओछी छलकती गगरिया जैसी !
नदी
खेलती रही सदियों से
मानव और सभ्यताओं से,
कितनी सिमटी मिट गई
कितनी समा गई ,
इसके अंतरजल में !
नदी
हो गई मानव
मानव की तरह
मुखौटे धारण करती
रंग रूप बदलती,
कभी शांत गंभीर भयंकर
कभी मारती दहाड़े तबाही मचाती
आततायियों की तरह !
नदी
में समाते नाले झरने,
पत्थर रेत बजरी कंकर
मिट्टी राख नश्वर शरीर मिलता,
खो देते अस्तित्व अपना
ठीक वैसे ही जैसे समुद्र मिल
खो देती नदी
नामों निशानअपना !