महाविद्यालय के स्टाफ में आज विशेष उत्साह था| आज उनका महाविद्यालय का एक मात्र सफाई कर्मचारी छतीस वर्ष की लंबी नौकरी करने के पश्चात रिटायर हो रहा था| वैसे तो प्रत्येक कर्मचारी एक न एक दिन रिटायर होता ही है, मगर राम सुख की बात कुछ और थी| आज की भाग-दौड़ में कोई कर्मचारी एक महाविद्यालय में तीन-चार साल से ज्यादा ठहर नहीं सकता| हर तीन-चार वर्ष के बाद ट्रांसफर हो जाना आम बात हैं, मगर अकेला राम सुख एक ऐसा कर्मचारी था जो पिछले छतीस वर्षों से इस महाविद्यालय में कार्यरत था| ये ईश्वरीय संयोग ही था कि आज तक उसकी न तो कोई ट्रांसफर हुई थी और न ही किसी कर्मचारी से कोई झगड़ा|
इन छतीस वर्षों में उसने अनेक प्रिंसिपलों के साथ काम किया, अनेक प्राध्यापकों की जॉइनिंग, ट्रांसफर व रिटायरमेंट के साथ साथ महाविद्यालय में होने वाले विभन्न बदलावों को भी उसने अपनी आँखों से देखा था| कुल मिलाकर इस महाविद्यालय के साढ़े तीन दशकों का इतिहास का एकमात्र साक्षी था| बेशक उसकी रिटायरमेंट स्टाफ को अच्छी नहीं लग रही थी, मगर रिटायरमेंट तो रिटायरमेंट है| खैर! समस्त स्टाफ ने उसे भाव-भीनी विदाई दी| महाविद्यालय परिवार ने दिल खोलकर अपने उद्गार प्रकट किए| रामसुख भी इस विदाई समारोह में अपनी पत्नी, बच्चों व रिश्तेदारों सहित उपस्थित था|
स्टाफ ने रामसुख को खूब उपहार दिए, उसके के साथ अनेकों तस्वीरें ली, और नम आंखों से भावभीनी विदाई दी| रामसुख के परिवार वाले भी बैंड-बजे के साथ उसे घर लेकर गए| क्योंकि वह लोकल ही था, अत: स्टाफ के सदस्य भी उसके घर तक उसे विदा करने गए| रामसुख व उसके परिवार के लोग महाविद्यालय के प्राध्यापकों को अपने घर में देखकर खुशी से फूलें नहीं समा रहे थे| उन्होंने समस्त स्टाफ का यथाशक्ति स्वागत किया| खूब खाना-पीना हुआ, नाच-गाना हुआ और रामसुख की रिटायरमेंट पार्टी कभी न भूलने वाला एक सुनेहरा पल बन गया|
अगले ही रोज़ प्रधानाचार्य ने रामसुख को महाविद्यालय में, सेवादार भेज कर बुलवा लिया और बड़े आत्मीयता से बोले, “देखो, रामसुख तुम्हारे बिना हमारा दिल नहीं लग रहा है, मैं चाहता हूं कि तुम पहले की भांति इस कॉलेज में काम करते रहो| मैं तुम्हें पी.टी.ए. पर नियुक्त कर लूंगा, तुम्हारा दिल भी लगा रहेगा और घर में दो पैसे भी आते रहेंगे|” रामसुख ने इस प्रस्ताव को सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुआ| प्रसन्नता के मारे उसकी आँखों में आँसू आ गए| उसने )धन्यवाद स्वरूप प्रधानाचार्य जी के पैर छुए, और फिर सहज होकर बड़े स्पष्ट शब्दों में बोला, “साहब जी मैंने छतीस साल घोड़े की सवारी की है, और आप चाहते हैं कि मैं इस बुढ़ापे में गधे की सवारी करूं? ना साब जी ना, यह मुझे न होगा|” ये कहकर रामसुख तेज-तेज क़दमों से प्रधानाचार्य कार्यलय से बाहर निकल गया और प्रधानाचार्य निशब्द उसे जाते हुए देखते रह गए|