रणजोध सिंह

श्याम प्रसाद जी अपने तीनों पुत्रों, पुत्र-वधुओं तथा पोते-पोतियाँ संग सड़क पर खड़े होकर अपने भतीजे की शादी में शामिल होने के लिए बस का इन्तजार कर रहे थे | वे स्वयं तो साधन-सम्पन्न थे ही, उनके तीनों पुत्रों पर भी मां लक्ष्मी की असीम कृपा थी | यद्यपि सबके पास अपने-अपने निजी वाहन थे मगर श्याम प्रसाद जी की मंशा कुछ और ही थी | उन्होंने गंतव्य तक पहुंचने के लिए एक छोटी वातानुकूलित बस का इंतजाम कर रखा था |

बस का नाम सुनते ही सभी लोग नाक-भौं चढ़ाने लगे मगर बस के चलते ही सफर सुहाना हो गया| बस में एक साथ बैठने पर उन्हें पहली बार एहसास हुआ कि परिवार क्या होता है | परिवार का प्रत्येक सदस्य एक दूसरे से हँसी-मज़ाक कर रहा था | तीनों पुत्र अपने बचपन के किस्से यादकर ठाहके लगा रहे थे तथा छोटे-बच्चे ऐसे घुल मिल गए थे जैसे एक दुसरे को बरसों से जानते हो | पुत्र-वधुएँ एक दुसरे के वस्त्र-विन्यास की प्रशंसा करते हुए अपना सुख-दुःख भी साँझा कर रही थीं | हँसते-हँसाते कब उनका गंतव्य आ गया, उन्हें पता ही न चला |

इस बीच श्यामा प्रसाद जी ने उन्हें समझाया, “विवाह का मतलब मात्र दूल्हा-दुल्हन को शगुन देना ही नहीं होता | कोई भी विवाह, उत्सव तभी बनता है जब पूरा परिवार एक साथ हो | थोड़ी देर के लिए ही सही, एक दूसरे के साथ बिताया वक्त यादगार बन जाता है, मगर यह निजी कारों में कभी संभव नहीं | इसीलिए आज के सफर के लिए मैंने बस का चुनाव किया |”

सभी लोग प्रसन्न थे क्योंकि श्यामा प्रसाद जी ने बड़ी सूझ-बूझ से खुशियों की अनमोल चाबी उनके हाथों में सोंप दी थी |

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