काली बिल्ली: रणजोध सिंह की कहानी
रणजोध सिंह

सारा पंडाल दर्शकां या फेरी भक्तजना ने पुरी तरह भरीरा था| स्वामी जी चिट्टे कपड़े पैनी ने, मथे पर चंदन-रोलीया रा टीका लगाई ने जिंदगीया रे गूड़ रहस्यां रा पर्दाफाश करने लगी रे थे| भक्तजन सा (सांस) रोकी ने स्वामी जी रे उपदेशां जो ईहाँ सुणने लगी रे थे, जीहाँ मन्नो स्वर्गा रे दरवाजे तिनां जो मुफ्ता ची खुली गईरे हो|

इकदम स्वामी जी ने एक अजीव जेहा प्रश्न भक्तां पर सटीत्या कि, “रोटी कितन्यां प्रकारां री हूँई ?” जाली भक्तां ते कोई जबाब नी मिल्या तां हसदे हुए बोले, “रोटी चार प्रकारां री हूँई, पैली रोटी हूँई मौआ (माता) रे हथा री, जिसरा लोक-परलोका ची कोई मुकाबला नीं| इसो खाणे ते खाली पेट ही नी भरां, पर मन भी त्रिपत हूँई जां|” “दूजी रोटी हूँई लाड़ीया रे हथा री, जिस्ची मौआ साही अपणापन तानी हुंदा, पर फेरी भी इक समझदार लाड़ी अपणे लाड़े जो बदिया रोटी खवाणा चाहीं|

तरीजे रोटी हूँई बहुआ रे हथा री, से सबी रे भाग्य ची नीं हुन्दी| अच्छी बहु मिली जाओ तां खाणा मिली सकां, नीं तां भगवाना री मर्जी| फेरी भी बहुआ जो पैले अपणा लाड़ा, बच्चे कने वादा ची तुसें| चौथी रोटी से हूँई से जे कम्मावालीआ रे हथा री बणीरी हूँई| याद रखणा ऐड़ीया रोटी ने, ना मना री त्रीप्ती हूँई, ना ही पेट भरां| प्यार, औ-भगत तां थोड़ी भी नीं हुंदी| स्वामीये समझाया कि भगवान न करे कि तुहां जो चौथी रोटी खाणे पौ, इस्ते पैले तूहें अप्णीया लाड़ीया या बहुआ ने खूब बणाई ने रखा ताकि चौथीया प्रकारा रीया रोटिया री जरूरत ही नी पौ| स्वामी जी रीयां गलां ची शत-प्रतिशत सच्चाई थी| पूरा पंडाल तालियां ने गूंजी गया| सारे लोक तीनांरे ज्ञानारे कायल हुई गये थे|

तैली इक नौंई ब्याई री लाड़ीया जो पता नी क्या सूझी, से अपणीया जगा खड़ी हुई गी कने स्वामी जी जो पूछणे लगी, “बाबा जी तुहें ये जे रोटीया रे प्रकार दसे मिजों लगां ये आदमियां रे खात्र है, तुहें ये साफ़ नीं दसया कि जनांना री रोटी कित्न्यां प्रकारां री हुईं?” उपदेशक जवान जनाना रे इस सीधे प्रश्ना ते एकदम हैरान हुईगे, पर अगले ही मिंटा ची संभलीगे कने कड़क आवाजा ची बोले, “रोटी, रोटी हुईं कने ये सभी जो बराबर हुईं| भुक्ख आदमी कने जनांना ची कोई फर्क नीं करदी|” ओथी बैठी रे भक्तां रीया हैरानीया री कोई सीमा नीं रही, जैली नौंई ब्याई री लाड़ीये पूरे जोशा कने हिम्मता ने बोली, “नहीं स्वामी जी आदमी कने जनाना रिया रोटीया ची फर्क हूँआं|

तुहें मौआ रे हथा री रोटीआ जो सबी ते उप्पर रखी रा | आदमी जो तां ये रोटी तैलीया तक मिली स्काईं, तैलीया तक जे तिसरी मौ बुढी या फेरी रोटी बनाने रे काबल नीं हो, पर जनाना जो ये रोटी तैलीया तक मिलांई तैलीया तक तीहा रा व्याह नीं हुंदा|” से थोडा रुकी फेरी हसदे हुए बोली,”तुहें लाड़ीया रे हथा रिया रोटीया जो दूजे रोटी दस्या| जनांना रे भाग्या ची ये रोटी तां लिखी री नीं हुंदी, ब्याह ते बाद तिहा जो सारा जीवन लाड़े, बच्चयां कने घरा रे होरी माणुआं जो रोटी बनाणे पौईं| घट ते घट भारता ची आदमी अपणीया लाड़ीया जो रोटी नीं बनांदे | स्वामी जी कुछ नी बोली सके हलांकि भगतगण सा रोकी ने स्वामी जी रे ज्बाबा रा इंतजार करने लगी रे थे|

जनाना थोड़ी देर रुकी फेरी बड़े विश्वासा ने, पर प्यारा ने बोली, “त्रीजी रोटी, बहुआ रे हथा री रोटी किसी किस्मता वालीआ जनाना जो ही मिलाईं| जे ये रोटी सभी जो मिलदी तां अहांरे देशा वृद्धाश्रमों री जरूरत नीं हुन्दी| चौथी रोटी, कम्मावालीआ रे हाथा री रोटी भी सिर्फ आदमींयां जो ही नसीब हुईं, क्योंकि रोटी बनाणे जो नौकर तां ही घरा जो ओंआ जाली रोटी बनाणे जो घरा पर कोई जनाना नीं रहे|” इतना सुणदे ही स्वामी जी ले कोई जबाब नीं था, कने से नौंई ब्याई री लाड़ीया रा मुंह देखणे लगे | पंडाल ची बैठी री जनता जोरदार तालिआं बजाणे लगी…..

जनाना री रोटी (पहाड़ी संस्करण): रणजोध सिंह

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