मंडी से प्रतिभावान कथाकार समीक्षक पौमिला ठाकुर ने आत्मा रंजन के हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह ‘जीने के लिए ज़मीन‘ पर सुविचारित समीक्षा लिखी है ।

सबके ‘जीने के लिए ज़मीन‘ की चाह रखती कविताएं –
सुनो तो रे कवि / करो ज़रा याद / कब रोए थे तुम / कितना हुआ समय / सचमुच / कब रोए थे!.. / लिख डाली हालांकि / इतनी कविताएं / ताज्जुब / कहलाते कवि !

एक कवि का संवेनदशील होना उतना ही आवश्यक है जितना लेखन से पहले अक्षर ज्ञान । कहने की आवश्यकता नहीं कि आत्मा रंजन मानवीय मूल्यों के गहरे हिमायती कवि हैं । हाल ही में प्रकाशित उनके कविता संग्रह “जीने के लिए ज़मीन” की कविताएं इसका प्रमाण हैं । अपने मनोभावों को आमजन मानस तक पहुंचाने का जरिया है कविता । छंद, अलंकारों की परंपरा से स्वतंत्र होकर नए दौर की कविता यदि भावशून्य हो तो क्या ही असर करेगी । लेकिन इस कविता संग्रह को पढ़ते हुए हम पाते हैं कि ये कविताएं भाव तत्व व मानवीय मूल्यों की गहरी संवेदनाएं लिए अनेकों रंगों से सुसज्जित हैं ।

जीवन संघर्ष, लोक को सहेजने की चिंता में अनेकों आंचलिक शब्दों जैसे कुटुवा, गाडका, झूंब, हूल, बियूल आदि का प्रयोग कवि के अपनी ज़मीन से जुड़े होने के परिचायक हैं ।

कवि न केवल मानव जाति अपितु प्रत्येक जीव जंतु, पेड़ पौधों के लिए भी उसी समभाव से चिंतित भी हैं और आभारी भी । मिसाल के तौर पर “जड़ों का ही कमाया” कविता देखिए – जड़ों का ही कमाया हुआ है / जो कुछ भी हरियाता लहलहाता है / खिलता मुस्कुराता है / रस और स्वाद भरा पकता महकता है / जड़ों का ही कमाया हुआ है ! यहां जड़ें प्रकृति के साथ ही दुनिया के श्रमशील तबके का भी प्रतीक है । सचमुच इस संसार में जो कुछ भी खिलता, महकता, स्वाद और खुशबू भरा है । जिसका सब उपभोग करते हैं, वह सब जड़ों अर्थात श्रम शील लोगों का ही कमाया हुआ है ।

सोशल मीडिया के इस युग में जब हर हाथ निज मन की बातें वांचने में सिद्धहस्त है, वहीं आत्मा रंजन जी पूरी निष्ठा से अपने लेखन धर्म का पालन करते हुए सामयिक विषयों पर पैनी नज़र रखते हुए रोष जताने से भी नहीं हिचकते । ‘ताज्जुब’ कविता में कहते हैं – ताज्जुब कि बच्चों के खिलौनों में घुस आए हैं / तीर, तलवार, बंदूकें, स्टेनगन / कितने ही हथियार / ताज्जुब / इससे भी अधिक / कि नहीं कोई औजार…! यहां हथियार हिंसक प्रवृत्ति का प्रतीक है और औजार श्रम संस्कृति का । बच्चों के खिलौनों में हथियार तो घुस आए हैं लेकिन औजार कहीं नहीं । ये श्रम के प्रति कहीं उपेक्षा या तिरस्कार का प्रमाण भी है ।

पारिवारिक मूल्यों जैसा विषय कैसे अछूता रह सकता था संवेदनशील कवि मन से । कि कवि कह उठता है – मां से मिलती है मिट्टी की तासीर / बहुत बहुत कुछ !

सचमुच मां से मिलती है मिट्टी की तासीर !

‘थपकी’ कविता में बड़ी बहन की छवि और थपकी का बहुत प्यारा सा बिम्ब उभरता है –
स्पर्श की बड़ी बहन है वह / और बड़ी बहन के स्वभाव को / तो आप जानते ही हैं ! किसी के लेखन में ईमानदारी का तत्व जितना प्रचुरता से पाया जाता है, उतना ही बिना लाग लपेट या बिना घुमा फिरा के कहने के बजाय वह सीधा कह पाने का साहस रखता है । और उतनी ही सरलता से वह कविता या कहानी पाठक के हृदय के भीतर भी किसी गहरे तल पर आधिपत्य जमाकर बैठ जाती हैं, ऐसा मेरा अनुभव है ।

‘चाह’ कविता देखिए –

लगातार / अच्छे बने रहने की चाह / उससे अच्छे कवि / और इंसान होने में / बनती रही बड़ी बाधा !

‘फायर ब्रांड’ कविता की पंक्तियां हैं –

कहीं और देखती हुई सी आंखों से / देखा उसने कविता की ओर / मुंह बिचकाते सिकोड़ते नाक भौं / जड़ा ज़ोरदार तमाचा कविता के मुंह पर / फैसले की मुद्रा में कहा बेतरह गरियाते हुए /… ऐसा होना चाहिए था तुझे ! यहां कविता को समझे बिना फतवे देने की प्रवृति पर अच्छा कटाक्ष किया गया है ।

लेखन धर्म केवल स्वयं की प्रसिद्धि मात्र ही नहीं होता अपितु पारिवारिक, सामाजिक एवं मानवीय मूल्यों के साथ साथ समसामयिक विषयों को पाठक वर्ग के समक्ष लाना भी होता है । समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ कड़े होने का साहस भी होता है । इन सभी अपेक्षाओं की कसौटी पर कसे जाने के पश्चात खरे उतरने की स्थिति में ही किसी को कवि कहलाए जाने का अधिकार है । हालांकि कविता एक हृदय से निकलती है और पाठक के हृदय में अंकित हो बैठती है मगर संवेदनशीलता के साथ साथ उसमें सामाजिक सरोकार भी होने ही चाहिए तभी लेखन की संपूर्णता है । अन्यथा तो सोशल मीडिया पर हम सब कुछ न कुछ मनोभाव उड़ेलते ही रहते हैं । आज की राजनीति की तानाशाही प्रवृति को बखूबी व्यक्त करती है कविता ‘असहमति’। सिर्फ हां से हां मिलाने, भेड़चाल में शामिल न होने पर विचार करती कविता । पंक्तियां कि – असहमति हो चली हो जैसे /दुश्मनी का पर्याय ! कितना गूढ़ और गहन चिंतन है समाज की विकृत मानसिकता का इस एक पंक्ति में… ।

ऐसे ही ‘स्मार्ट लोग’ कविता आज हर क्षेत्र में हर तरफ दिखाई देती चालक मानसिकता पर बेहतरीन ढंग से व्यंग्य और प्रहार करती है ।

हमारे समाज की विडंबना ही कही जाएगी कि पितृसत्तात्मक मूल्यों की अनुगामिनी को देवीतुल्या और स्वयं की बुद्धि अनुसार मार्ग चुनने वाली को अनेकों ही बार विद्रोहिणी ही नहीं कुलच्छनी जैसी की ‘उपमाओं‘ द्वारा अलंकृत किया जाता है । स्त्री विमर्श की बड़ी बड़ी बातें करना हर क्षेत्र में एक रीत मात्र है । जबकि कटु यथार्थ कहती है कविता ‘जैसे शौर्य गाथाओं में स्त्री’। स्त्री किस रूप में चाहिए उन्हें, पंक्तियां देखें – ‘उनकी उड़ानों में हाज़िर परिचारिकाओं की तरह / उनकी थकान या विलास के क्षणों में चाहिए / नसों में उतरती मदमाती नृत्य मुद्राओं / उठती गिरती मटकाती आंखों की तरह चाहिए / आंखों में आंखे डालती हुई नहीं, कतई नहीं चाहिए आंखें दिखाती हुई !’ यानी आज भी स्त्री अधिकांश सुविधा, वस्तु या भोग्या की तरह ही चाहिए । एक मनुष्य के रूप में आंखों में आंखें डालती या अपनी अस्मिता या अधिकारों के प्रति सजग ‘आंखें दिखाती हुई’ वाला रूप कतई मंजूर नहीं । यह कविता और स्त्रियों पर केंद्रित संग्रह की कुछ अन्य कविताएं भी स्त्री को स्त्री गरिमा और मानवीय गरिमा के साथ देखने समझने की प्रबल समर्थक हैं ।

कविता का मूल तत्व है भाव और भावों की प्रधानता से लबरेज़ यह कविता संग्रह आत्मा रंजन जी का दूसरा काव्य संग्रह है । वर्ष 2011 में आए ‘पगडंडियां गवाह हैं’ के बाद 2022 के अंत में आए ‘जीने के लिए ज़मीन’ भी अंतिका प्रकाशन द्वारा ही प्रकाशित है । साधारण होकर भी ये बेहद असाधारण कविताएं हैं । निश्चित रूप से सभी कविताएं पाठकों को नए बेहद खूबसूरत बिम्बों से रूबरू करवाने में सक्षम हैं । समसामयिक विषयों बारे गहन चिंतन मनन पश्चात उपजी सभी रचनाएं पाठकों के मन मस्तिष्क पर खूब लंबे समय तक अंकित रहेंगी, ऐसा मेरा विश्वास है ।

स्पर्श व थपकी में लड़ने के हौसलों को देखती, कुचले जाने के विरुद्ध फिर से उग जाने की हिम्मत करने वाली घास की, न केवल प्रतिरोध अपितु युद्ध लड़ने की कला जानने वाली और सबके लिए ज़मीन की चाह रखने वाली, बेहद खूबसूरत बिम्बों से सजी कविताओं के इस संग्रह का सुधि पाठकों द्वारा हृदय से स्वागत किया जाएगा, इसी आशा के साथ प्रिय कवि को पुनः बधाई, भविष्य के लिए शुभकामनाएं ।

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