“ड्रेस कोड” बड़े कमाल की चीज़ है। दूर से पता चल जाता है कि कौन कौन है। पर समय के साथ ये भी बदलने लगा है। एक ज़माना था जब पत्रकार खद्दर का कुर्ता पायजामा, कपड़े का झोला और चेहरे पर बेतरतीब दाढ़ी रख कर आते थे। पांव में सस्ती सी चप्पल होती थी। उस समय के डाकू साफा बांधे, माथे पर देवी मां का तिलक लगा, कांधे पर बंदूक टांग, घोड़े पर सवार हो कर आते थे। वो खुद को डाकू नहीं बागी कहलाना पसंद करते थे। दोनो अलग अलग पहचाने जाते थे।
समय बदला। खुली अर्थव्यवस्था आ गई। कल तक चप्पल पहन पैदल चलने वाले कारों में आ गए और डाकुओं के परिधान भी बदल गए और वे अब खुद को देशभक्त कहलाना पसंद करते हैं। परिधान ऐसे बदले कि पत्रकारों, नेताओं और डाकुओं में फर्क करना भी मुश्किल हो गया। अब डाकू लूटने नहीं आते बल्कि लोग लाइंस लगा कर खुद लुटने को जाते हैं। इसलिए न उन्हें घोड़ों की ज़रूरत है न गोली बंदूक की। लुटने वालों को भी सालों बाद पता चलता है कि वो लूटे गए। जब तक पता चलता है तब तक लुटेरे विदेश भाग गए होते हैं।
कोई ‘ ड्रेस कोड’ होना चाहिए : परिधान के सामाजिक प्रभाव
पहले डाकू लूट मार करके बीहड़ों में जा छुपते थे अब तो उन्हें छुपने की भी ज़रूरत नहीं। अब तो वो चुनाव जीत कर ऐसी जगह जा बैठते हैं जहां उन्हें छूना भी लगभग नामुमकिन हो जाता है। विज्ञान की तरह लूट के क्षेत्र में भी अनुसंधान चलता रहता है। यह एक सतत प्रक्रिया है। नई खोज के मुताबिक आजकल लूट- मार करने के लिए अब शानदार सूट, टाई, और चेहरे पर मनमोहक मुस्कान और नेताओं के आशीर्वाद की ज़रूरत है।
नेताओं के सानिध्य में रहने वाले तो साफ सुथरा धोती कुर्ता, माथे पे टीका लगा कर भी यह धंधा चला लेते हैं। देखा गया है जहां नए ‘ड्रेस कोड’ इस्तेमाल होते हैं वहां लोग लुटने के लिए अधिक संख्या में आते हैं। मसलन पैसा दुगना करने वाले अदारे, निजी बीमा कंपनियां, चिट फंड चलाने वाले या निजी बैंक । देखो कितनी लंबी लाइन लगती है। अब डॉक्टर्स, वकील, फौज या पुलिस को छोड़ किसी की पोशाक से उसके प्रोफेशन का पता नहीं चलता। ज्यादातर लोग एक जैसे ही नज़र आते हैं।
ऐसे लुटेरों के खिलाफ पुलिस केस भी दर्ज नहीं करती। कभी करना भी पड़े तो उन्हें बचाने के रास्ते खुद ही बना लेती है। लुटेरों को पूरा मौका देती है शिकायतकर्ता और गवाहों को डराने, धमकाने या पैसे से खरीदने का। अगर फिर भी गिरफ्तार करना पड़े तो भी ज़मानत की अर्जी का विरोध पुलिस की तरफ से नहीं होता। दूसरी तरफ ऐसे सैंकड़ों मामले हैं जिनमे बरसों लोगों को ज़मानत नहीं मिलती। खैर हमें क्या। हम तो बस ड्रेस कोड को लागू करने की मांग ही करते हैं ताकि लोगों के प्रोफेशन को दूर से पहचान सकें। वैसे तो आजकल लोग चेहरों पे इतने मुखौटे लगाए घूमते हैं की पहचान नहीं पाते कि कौन सा चेहरा असली है।
Landslide Affected Villages In Himachal : Kangra District Relief And Rehabilitation